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तेज करना मान्य नहीं रहा है। ध्यान की दृष्टि से उसकी उपयोगिता नहीं है। अहिसा की दृष्टि से यह निर्देश प्राप्त है कि तंज श्वास में जीव-हिमा होती है, इसलिए भस्त्रिका जेसे तीव्र श्वास वाले प्राणागम नहीं करने चाहिए।
श्वास को सूक्ष्म, मन्द, विजित और निर्यान्त्रत करने के सूत्र उपलब्ध है, किन्तु श्वास-प्रेक्षा की अभ्यास-विधि प्रत्यक्ष रूप में उपलब्ध नहीं है। उसे आनापान स्मृति तथा श्वास-दर्शन की अभ्यास-पद्धतियां कं आगर पर विकसित किया गया है। भाव-क्रिया के रूप में उमका सूत्र उपलब्ध था, किन्तु अभ्यास परम्परा कं प्राप्त न होने के कारण, वह पकड़ा नहीं जा सका। श्वास के विपय मे भाव-क्रिया का अर्थ होगा कि हम श्वास लेते समय 'श्वास ले रहे है'-इसी का अनुभव करे, वहीं स्मृति रहे, मन किसी अन्य प्रवृत्तियो मे न जाए, वह श्वासमय हो जाए, उसके लिए समर्पित हो जाए, श्वास की भाव-क्रिया ही श्वासप्रेता है। यह नासाग्र पर की जा सकती है, श्वास के पूरे गमनागमन पर भी की जा सकती है। श्वास के विभिन्न आयामो और विभिन्न रूपा को देखा जा सकता है। २. कायोत्सर्ग
शरीर की चचलता, वाणी का प्रयोग और मन की क्रिया-इन सवको एक शब्द मे योग कहा जाता है। ध्यान का अर्थ है-यांग का निरोध । प्रवृत्तिया तीन है और तीनो का निरोध करना है। फलत ध्यान के भी तीन प्रकार हो जाते है-कायिक ध्यान, वाचिक ध्यान और मानसिक ध्यान। यह कायिक ध्यान ही कायोत्सर्ग है। इसे कायगुप्ति, काय-सवर, काय-विवेक, काय-व्युत्सर्ग और काय प्रतिमलीनता भी कहा जाता है। ___कायोत्सर्ग मानसिक एकाग्रता की पहली शर्त है। यह अनेक प्रयोजनो से किया जाता है, प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का सतुलन रखने के लिए जो किया जाता है, उसे 'चेप्टा कायोत्सर्ग' कहते है। प्राप्त कष्टो को सहने तथा कष्टजनित भय को निरस्त करने के लिए 'अभिभव कायोत्सर्ग' किया जाता है।' क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन भी उसका एक प्रयोजन है। वह स्वय प्रायश्चित्त है। अमगल, विघ्न और बाधा के परिहार के लिए भी १ कायोत्सर्ग शतक, गाधा ३ ५। २ कायोत्सर्ग शतक, गाथा ८ । १७८ / मनोनुशासनम्