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पर अभ्यास की कुशलता के विना कैसे सभव है कि व्यक्ति क्षणभर भी प्रमाद न करे ? भगवान् ने गौतम को अप्रमाद का उपदेश दिया तो अप्रमत्त रहने की साधना भी वतलाई होगी। अन्यथा इस उपदेश का कोई अर्थ भी नही होता । मन इतना चचल और मोहग्रस्त है कि मनुष्य क्षणभर भी अप्रमत्त नहीं रह पाता। वह अप्रमाद की साधना क्या है ? अप्रमाद के आलम्वन क्या है ? जिनके सहारे गौतम अप्रमत्त रहे और कोई भी व्यक्ति अप्रमत्त रह सकता है। उन आलम्वनो की क्रमवद्ध व्याख्या आज उपलब्ध नही है, फिर भी महावीर की वाणी में वे आलंवन- वीज यत्र-तत्र विखरे हुए आज भी उपलब्ध है । इस प्रक्षा ध्यान की पद्धति मे उन्ही विखरे वीजो को एकत्र किया गया है । अप्रमाद के मुख्य आलवन ये है '
१. श्वास- प्रेक्षा
६ सयम
२ कायोत्सर्ग
३ शरीर- प्रेक्षा
४. वर्तमान क्षण की प्रेक्षा
५ समता
७ भावना
८. अनुप्रेक्षा
६. एकाग्रता ।
१. श्वास-प्रेक्षा
मन की शान्त स्थिति या एकाग्रता के लिए श्वास का शान्त होना बहुत जरूरी है। शान्त श्वास के दो रूप मिलते है - 9 सूक्ष्म श्वास-प्रश्वास, २ मन्द श्वास-प्रश्वास । कायोत्सर्ग शतक मे बताया गया है कि धर्म्य और शुक्ल ध्यान के समय श्वास-प्रश्वास को सूक्ष्म कर लेना चाहिए ।'
ध्यान तीन प्रकार के होते है - कायिक, वाचिक और मानसिक । शरीर की प्रवृत्तियो का निरोध करना कायिक ध्यान है । इस ध्यान मे श्वास-प्रश्वास का निरोध नही किया जाता किन्तु उसे सूक्ष्म कर लिया जाता है। आचार्य
9 कायोत्सर्ग शतक, गाथा, ५१
ताव सुहमाणुपाणू, धम्म सुक्क च झाइज्जा । व्यवहार भाप्य पीठिका, गाथा १२३ कायचेट्ठ निरुभित्ता मण वाय च सव्वसो । वट्टइ काइए झाणे सुहुमुस्सासव मुणी ॥
मनोनुशासनम् / १७५