________________
उत्तरवर्ती योगग्रथो मे अन्य वायुओं के जय से होने वाले लाभो का वर्णन मिलता है। नौवे से बारहवे सूत्र तक उनका निरूपण किया गया है । तेरहवे सूत्र मे प्राणायाम की एक विशेष प्रक्रिया का निरूपण किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र तथा याज्ञवल्क्य गीता मे इसका विस्तृत वर्णन मिलता है ।
उक्त प्राणायाम की प्रक्रिया इस प्रकार है-साधक पद्मासन या सिद्धासन लगाकर बैठे। फिर वह रेचक प्राणायाम करे । उसके बाद बाये नथुने से पूरक प्राणायाम करे और प्राण को पैरो के अगूठे तक ले जाए । वहा सकल्पपूर्वक कुम्भक करे। फिर प्राणवायु को क्रमशः पैरो के तलुवे, एडी, टखने, जघा, घुटने, ऊरु, गुदा, लिग, नाभि, उदर, हृदय, कण्ठ, जीभ, तालु, नासाग्र, नेत्र, भौह, ललाट और सिर तक ले जाए। वहा से उसे ब्रह्मरन्ध्र मे ले जाए। फिर उल्टे क्रम से प्राणवायु को पैरो के अगूठे तक ले जाए। फिर पैरो के अगूठे से उसे नाभि तक लाकर उसका विरेचन कर दे। इस प्रक्रिया के मध्य वायु को धारण करने से होने वाले लाभ चौदहवे से पचीसवे सूत्र तक बतलाए गए है ।
२६. आस्थाबन्धो दीर्घकालासेवनं नैरन्तर्य कर्मविलयश्चात्र हेतुः ॥ २७. मनोनुशासनाद् अतीन्द्रियोपलब्धिः ॥
२६ दृढ आस्थायुक्त, प्रतिदिन, लम्बे समय तक उक्त स्थानो मे सकल्पपूर्वक कुम्भक करने तथा कर्म-पुद्गलो का विलय होने से ही ये शक्तिया प्राप्त होती है I
२७ मन के अनुशासित होने पर अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है। मनोनुशासन का अन्तिम फल अतीन्द्रिय ज्ञान की उपलब्धि या स्वभाव की उपलब्धि है ।
सिद्धि की प्रक्रिया
योग-साधना से होने वाली उपलब्धियों का वर्णन मनुष्य के सामान्य ज्ञान से परे की वस्तु है । साधारणतया जीवन में ऐसा घटित नहीं होता किन्तु मन की एकाग्रता के द्वारा कुछ ऐसा घटित होता है, जिसकी मानसिक चंचलता की स्थिति मे कल्पना भी नही की जा सकती। हमारे शरीर के भीतर कुछ ऐसे शक्ति स्रोत विद्यमान है जिनका चैतसिक चचलता की १३० / मनोनुशासनम