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तैजस और कार्मण दोनो सूक्ष्म शरीर है।
चैतन्य का विस्तार बाह्यजगत् की ओर होता है, तब उसकी गति सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है और जब वह बाह्यजगत् से अन्तर्जगत् मे लौटता है तव उसकी गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है।
स्थूल शरीर की निष्पत्ति कार्मण शरीर के होने पर होती है, इस दृष्टि से वह सव शरीरो का मूल कारण है। स्थूल शरीर भवान्तरगामी नही होते। सूक्ष्म शरीर भवान्तरगामी होते है। उनमे भी भवान्तरगमन के सस्कार कार्मण शरीर में सचित रहते है। इस दृष्टि से यह सस्कार शरीर भी है। ___आत्मा का सबसे निकट सम्पर्क कार्मण शरीर से है। आत्मा के चैतन्य और वीर्य सर्वप्रथम इसी मे सक्रान्त होते है। तैजस शरीर उन्हे स्थूल शरीर तक पहुचाता है और स्थूल शरीर के द्वारा वे अभिव्यक्त होते है। इस प्रकार आत्मा के चैतन्य और वीर्य कार्मण शरीर, तेजस शरीर और स्थूल शरीर की क्रमिक प्रक्रिया से वाह्यजगत् तक पहुचते है
और वे विपरीत प्रक्रिया से बाह्यजगत् के प्रभाव को आत्मा तक पहुचाते है। वाह्यजगत् का प्रभाव सर्वप्रथम स्थूल शरीर पर होता है। उसे तैजस शरीर कार्मण शरीर तक ले जाता है और कार्मण शरीर के माध्यम से वह आत्मा तक पहुचता है। इस प्रकार तैजस शरीर प्रेपण के माध्यम का काम करता है। योग के आचार्यों ने तेजोमय आत्मा की परिकल्पना की है। आत्मा की तेजोमयता की परिकल्पना का निमित्त यह तैजस शरीर ही है।
कार्मण और तैजस शरीर सूक्ष्म शरीर है, इसतिए इनके अवयव नहीं है। वे अवयव-विहीन शरीर है। वे स्थूल शरीर के अवयवो मे परिव्याप्त है। साधारणतया वे समूचे शरीर मे परिव्याप्त है किन्तु शरीर के कुछ भागो मे वे विशेष रूप से केन्द्रित है। ये केन्द्रित भाग चैतन्य की अभिव्यक्ति के मुख्य केन्द्र है। पिण्डस्थ ध्यान मे इन्ही केन्द्रो पर मन को एकाग्र किया जाता है। चैतन्य की अभिव्यक्ति के शारीरिक केन्द्र ये है १. सिर
६. नेत्र २. भ्रू
७. कान ३. तालु
८ नासाग्र ४. ललाट
६. हृदय ५. मुह १० नाभि
मनोनुशासनम् / १०३