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लिए सर्वेन्द्रिय-सयम मुद्रा का निर्देश दिया गया है।
शरीर की स्थिरता मन की स्थिरता का आधार है। इस दृष्टि से शरीर का सुप्रणिधान करना बहुत उपयोगी है। प्रणिधान निर्मलता और स्थिरता के द्वारा प्रकट होता है। शरीर की निर्मलता नाडी-शोधन के द्वारा प्राप्त होती है और उसके होने पर ही वाछनीय स्थिरता प्राप्त होती है।
नाडी-शोधन के लिए समवृत्ति प्राणायाम वहुत उपयोगी है। दिन-रात मे तीन या चार वार समवृत्ति प्राणायाम करने तथा प्रत्येक वार मे ६० से ८० तक की पुनरावृत्ति तक पहुच जाने पर नाडी-शोधन हो जाता
खडे होकर ध्यान किया जाता है तव भुजदड का प्रलम्वित होना आवश्यक है। वायीं अजलि पर दायी अजलि टिका तथा दोनो अंजलियो को नाभि से सटाकर भी ध्यान किया जाता है, किन्तु खडे होकर किए जाने वाले ध्यान मे अधिकाशतया प्रलम्बित भुजा की पद्धति ही प्रचलित रही है। इसका हार्द यही होना चाहिए कि ध्यानकाल मे प्रवाहित होने वाली शक्ति तरगे शरीर के बाहर न जाकर पुन उसमे ही समाहित हो जाए।
दोनो पैर परस्पर सटे हुए होने चाहिए। दोनो एडिया भी सटी हुई होनी चाहिए किन्तु पजो के वीच मे चार अगुल का अन्तर रहना आवश्यक है। इसमे लम्बे समय तक स्थिर मुद्रा मे अभ्यास करने में सुविधा होती है। शिथिलता या स्थिरता प्राप्त करने मे अधिक कठिनाई नही
होती।
हमारा जगत् सक्रमणशील है। इसमे वस्तु एक देश से दूसरे देश मे सक्रात होती है और उससे दूसरे द्रव्य प्रभावित होते है। सौर जगत् से जो परमाणु प्रवाह आता है, उससे मनुष्य प्रभावित होता है। देश और काल ये दोनो माध्यम उसके प्रभावित होने मे योग देते है। जैसे विभिन्न महीनो मे आने वाला सौर जगत् का प्रवाह मनुष्य के विभिन्न अगो को प्रभावित करता है, वैसे ही विभिन्न दिशाओ से आने वाला सौर प्रवाह भी मनुष्य के विभिन्न अगो और चैतन्य केन्द्रो पर भिन्न-भिन्न प्रभाव डालता है। ध्यान के लिए पूर्व और उत्तर दिशा से आने वाले सौर जगत् के तत्त्व-प्रवाह अधिक अनुकूल होते है। इसीलिए ध्याता को पूर्व और उत्तर दिशा की
६६ / मनोनुशासनम्