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को विसर्जित किए विना क्या कोई व्यक्ति ध्यान का अधिकारी बन सकता है ? मानसिक अभ्यास को पुष्ट किए विना क्या कोई ध्यान का अधिकारी वन सकता है ? ध्यान की पहली योग्यता है-स्वरूप की जिज्ञासा। जो दृश्य है-वह स्वरूप नही है। अपना अस्तित्व नहीं है। जो निजी अस्तित्व है वह वहुत सूक्ष्म है और सूक्ष्म होने के कारण वह चर्म चक्षु द्वारा दृश्य नही है। उसे देखने की उत्कट आकांक्षा हुए बिना वह दिखाई भी नही देता।
प्रारम्भ मे ध्यान बहुत सरस नहीं लगता। स्थूल प्रवृत्ति को छोडकर निष्क्रिय मुद्रा मे वैठ जाना अच्छा लग भी कैसे सकता है ? किन्तु ऐसा वही कर सकता है जिसके मन मे इस स्थूल शरीर के भीतर छिपे हुए सूक्ष्म परमतत्त्व को जानने की उत्कट आकाक्षा प्रकट हो जाती है।
निशाना साधने मे भी एकाग्रता होती है। प्रिय का वियोग होने पर उसे पाने और अप्रिय का सयोग होने पर उसे दूर करने के लिए भी मन एकाग्र वनता है, किन्तु उस एकाग्रता से चित्त निर्मल नही होता। फलत उससे परमतत्त्व प्रकाशित नही होता। उसे प्रकट करने के लिए चित्त की निर्मलता आवश्यक होती है और चैत्तिक निर्मलता के लिए अपने दोषातीत अस्तित्व पर चित्त को केन्द्रित करना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया मे स्वरूप की जिज्ञासा ध्यान का पहला सोपान है। __ स्वरूप की जिज्ञासा के प्रवल होने पर साधक मे दो विशेष गुण विकसित होते है १. मुमुक्षा
२. सवृतत्व मुमुक्षा का अर्थ है-उन सारी प्रवृत्तियों से मुक्त होने की इच्छा, जो स्वरूप की उपलब्धि मे वाधक वनती है। दूसरे शब्दो मे वह स्वतत्रता जो परिस्थिति आदि से भी प्रताडित नही होती। यह (मुमुक्षा) जितनी समर्थ होती है, उतनी ही ध्यान की क्षमता वढती है। इसलिए ध्याता का मुमुक्षु होना जरूरी है।
संवृतत्व का अर्थ है-इन्द्रिय और मन की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति। उनकी वहिमुर्शी प्रवृत्ति रहती है तव तक साधक वैपयिक सुखो से विरक्त नही होता। वैषयिक सुखो की अनुरक्ति होना ध्यान के लिए अनुकूल नही है। इसलिए ध्याता का सवृत होना जरूरी है।
मनोनुशासनम् । ६३