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स्वरूपमधिजिगमिषुर्ध्याता॥
२ आरोग्यवान् दृढ़संहननो विनीतोऽकृतकलहो रसाप्रतिवद्धोऽप्रमत्तोऽनलसश्च ।।
३. मुमुक्षुः संवृतश्च ॥
४. स्थिराशयत्वमस्य ॥
चौथा प्रकरण
9 जिस व्यक्ति मे स्वरूप - जिज्ञासा - अपना मौलिक रूप जानने की भावना होती है, वही ध्याता - ध्यान का अधिकारी होता है । ध्यान का अधिकारी वही हो सकता है, जो आरोग्यवान् हो, दृढ शरीर वाला हो, विनीत हो, उपशान्त- कलह हो, रसलोलुप न हो, अप्रमत्त हो और आलसी न हो। इसका तात्पर्य यह है कि रोग, शरीर- दुर्वलता, अविनय, कलह, रसलोलुपता, प्रमाद और आलस्य-ये ध्यान की साधना के विघ्न है । मन को अनुशासित वही कर सकता है, जो इनसे बचे ।
वही व्यक्ति ध्यान का अधिकारी होता है, जो मुमुक्षु और सवृत है । जिसमे मुक्त होने की इच्छा होती है, वह मुमुक्षु कहलाता है। जिसमे सवरण की क्षमता होती है, वह सवृत होता है । ध्यान के द्वारा ध्याता का आशय स्थिर हो जाता है - चित्त की चचलता दूर हो जाती है ।
२
४.
ध्यान की योग्यता
किसी एक विन्दु पर एकाग्र होना, विचारो को एक ही दिशा मे प्रवाहित करना या विचारातीत होना सरल कार्य नही है । इन सबके लिए शारीरिक और मानसिक विकास की अपेक्षा होती है । शारीरिक चचलता
६२ / मनोनुशासनम्