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६८ : जेनसाहित्यका इतिहास है वह मूलाचारमें आगे दी है उसका नम्बर ३६ है। उसके पश्चात् ३८, ३९ और ४० नम्बरको गाथाएं संग्रहणीमें ८७, ८८ और ९० नम्बर पर हैं ।
इस तरह द्वीप समुद्रोंके कथन सम्बन्धी गाथाएँ दोनों संग्रहणियोंमें प्रायः समान हैं।
आगे योनियोंके कथन सम्बन्धी मूलाचार गाथा ५८-५९ संग्रहिणीमें ३५८३५९ नम्बर पर हैं। ६० तथा ३६० नम्बरकी गाथाका अर्थ समान होते हुए भी शब्दोंमें थोड़ा अन्तर अन्तर पाया जाता है। आगे ६१-६२ तथा ३६१३६२ गाथाएँ प्रायः समान हैं। मूलाचारकी ६२वीं गाथाके अन्तिम चरणका पाठ है-'सेसा सेसेसु जोणीसु'। और संग्रहणीकी ३६२वीं गाथाके अन्तिम चरणमें पाठ हैं-'सेसाए सेसगजणो य' । गोम्मटसार जीवकाण्डमें यह गाथा संग्रहणी वाले पाठके साथ पाई जाती है। __ मूलाचारमें कुलोंको बतलाने वाली १६६ से १६९ तक की चार गाथाएं इसी क्रमसे संग्रहणीमें है और उनकी क्रमसंख्या ३५३-३५६ तक है। और भी कितनी ही गाथाएं दोनों ग्रंथों में समान हैं ।
विशेषावश्यक भाष्यकार जिनभद्रगणी सातवीं शताब्दीमें हुए हैं । तिलोयपण्णत्तिकी रचना उससे बहुत पहले हो चुकी थी और तिलोयपण्णत्तिमें मूलाचार का निर्देश है तथा उससे कुछ गाथाएं भी ली गई हैं। अतः मूलाचार ति०प०से भी प्राचीन है। अतः संग्रहणीमें उक्त गाथाएँ मूलाचारके अन्तमें स्थित ‘पज्जती संग्रहणी' से ली गई हों, यह संभव है। __ और भी कुछ गाथाएँ संग्रहणीमें ऐसी हैं जो अन्य ग्रंथोंमें मिलती हैं। संगहणीकी 'पदमक्खरं पि इक्क' आदि १६७वीं गाथा भगवती आराधनाकी ३९वीं गाथा है और 'सुत्तं गणहरइयं' आदि १६८वीं गाथा भ० आराधनाकी ३४वीं गाथा है । अन्तर केवल इतना है कि उसमें 'रइयं' के स्थान पर 'गथिदं' और 'कहियं' पाठ है। 'कथिदं' पाठके साथ यही गाथा मूलाचारके पञ्चाचाराधिकारमें भी पाई जाती हैं। फिर संग्रहणीमें ये दोनों गाथाएँ विना किसी प्रकरणके स्वर्गों में उपपादके प्रकरणमें संगृहीत की गई हैं। अतः निश्चय ही इन्हें अन्यत्रसे लिया गया है। भगवती आराधना तिलोयपण्णत्तिसे भी प्राचीन है।
इसी तरह 'पुन्वस्स उ परिमाणं' आदि ३१६वीं गाथा पूज्यपादको सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत हैं। और पूज्यपाद ५-६वीं शतीके आचार्य हैं। अतः यह गाथा प्राचीन होनी चाहिये । संग्रहणीमें पहली पृथिवीकी स्थिति बतलाकर शेष पृथिवियोंमें स्थिति बतलानेके लिए एक करणसूत्र दिया है जो इस प्रकार है