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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ६७ समासकी तरह ही वृहत् संग्रहिणीमें भी ग्रन्थकारका कोई निर्देश नहीं मिलता। किन्तु टीकाकारने उसे जिनभद्र गणिजीकी कृति बतलाया है।
उसके गुजराती अनुवादकी प्रस्तावनामें लिखा है कि वृहत्संग्रहणिकी मूल गाथाएँ ३५३ हैं; क्योंकि मलयगिरिकी टीकाके साथ छपे हुए ग्रन्थके अन्तमें ३५३ मूल गाथाएं दी है। टीकाकारने अपनी टीकामें २४ क्षेपक गाथाओंको भी सम्मिलित कर लिया है इससे गाथा संख्या ३६७ हो गई है।
ग्रन्थके प्रारम्भमें उसका नाम 'संगहणि' बतलाया है। तथा उसमें देवों और नारकियोंकी स्थिति, भवन; अवगाहना और मनुष्यों तथा तिर्यञ्चोंके शरीर और आयुका प्रमाण तथा उत्पत्ति और च्यवनका बिरहकाल, एक समयमें उत्पन्न होने वाले और च्युत होने वाले जीवोंकी संख्या और गति आगतिका कथन करनेका निर्देश किया है।
तथा अन्तमें ( गा० ३६४ ) कहा है कि मैंने भव्य जीवोंके हितके लिये आगमसे उद्धृत करके यह संक्षिप्त संग्रहणी कही है । और अन्तिम गाथामें कहा है कि मैंने पूर्वाचार्य कृत श्र तमेंसे अपनी मतिके अनुसार जो कुछ उद्धृत किया हो उसे श्रु तधर क्षमा करें। इससे स्पष्ट है कि इस संग्रहणीका संग्रह पूर्वाचार्य कृत श्र तमेंसे किया गया है।
दिगम्वर परम्परामें एक मूलाचार नामक ग्रन्थ है इस ग्रन्थका उल्लेख तिलोयपण्णत्तिमें मिलता है और उससे उसमें कुछ गाथाएँ भी ली गई हैं यह पहले बतला आये हैं। मूलाचारके अन्तिम प्रकरणका नाम 'पज्जति संग्रहणी है । इस प्रकरणकी अनेक गाथाएँ वृहत् संग्रहणीमें संगृहीत हैं । कुछ गाथाएं तो यथाक्रम पाई जाती हैं । विवरण इस प्रकार है
जम्बूद्वीपसे लेकर क्रौंचवर द्वीपपर्यन्त सोलह द्वीपोंके नाम दोनों ग्रन्थोंमें दो गाथाओंसे बतलाये गये हैं । इन दोनों गाथाओंकी क्रमसंख्या मूलाचारमें ३३-३४ और संग्रहणीमें ८२-८३ है । दोनोंमें प्रायः समानता है। उसके पश्चात् मूलाचारमें यह गाथा है
एवं दीवसमुद्दा दुगुण दुगुणवित्थडा असंखेज्जा।
एदे दु तिरियलोए सयंभुरमणोदहिं जाव ॥३५।। संग्रहणीमें यही गाथा थोड़ेसे पाठभेदको लिए हुए इस प्रकार है
एवं दीवसमुद्दा दुगुणा दुगुणा भवे असंखेज्जा ।
भणिओ य तिरियलोए सयंभुरमणोदही जाव ॥८५॥ उक्त दो गाथा और उक्त गाथाके बीचमें संग्रहणी में जो ८४ नम्बरकी गाथा