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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ६५
जत्थिच्छसि विक्खंभं चूलियसिहराउ समवदिण्णाणं ।
तं पंचेहि विहत्तं चउजुत्तं तत्थ तव्वासं ॥१७९७॥-ति०प० ४ । दूसरे लवणाब्धि अधिकारमें लवण समुद्रका विस्तार, परिधि, उसमें स्थित पाताल, जलकी हानिवृद्धि, बेलंधर नागकुमारोंकी संख्या आदि, छप्पन अन्तरद्वीप, अन्तरद्वीपमें रहने वाले मनुष्योंका उत्सेध आदि, लवण समुद्रके उत्सेधादिका प्रमाण तथा चन्द्रमा, सूर्य आदिकी संख्याका कथन है।
इस अधिकारमें अन्तरद्वीप छप्पन बतलाये हैं। जिनमेंसे अट्ठाईस द्वीप हिमालय पर्वत सम्बन्धी और २८ द्वीप शिखरी पर्वत सम्बन्धी है। इनके नाम क्रमशः एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक, लाङ्गलिक आदि हैं। (बृ०क्षे०स०, २-५६ आदि)। श्वेताम्बर साहित्यमें छप्पन अन्तर्दीप माने गये हैं किन्तु दिगम्बर साहित्यमें अन्तर्वीप माने गये हैं । तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके उमास्वाति रचित भाष्यमें भी ९६ अन्तर्वीप माने हैं । उस पर टीकाकार' सिद्ध सेनगणिने रोष प्रकट करते लिखा है कि यह कथन आर्ष विरुद्ध है।
अतः तिलोयपण्णत्तिमें अन्तर्वीप ९६ बतलाये हैं। सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक आदिमें भी ९६ ही बतलाये हैं । वृहत्क्षेत्र समासमें द्वीपोंका नाम एकोरुक आदि बतलाया है और द्वीपोंके नामके कारण उनमें रहने वाले मनुष्यों का भी वही नाम बतलाया है। किन्तु दिगम्बर साहित्यमें अन्तद्वीपोंमें रहने वाले मनुष्योंको एकोरुक-जिनके एक पैर हैं, आदि बतलाया है। और उनका अर्थ उन शब्दोंके अनुसार यही किया जाता है कि उनके एक जंघा है, वे गूंगे हैं, उनमेंसे किसीका मुख मत्स्यकी तरह, किसीका बन्दरकी तरह है, आदि ।
तिलोयपण्णत्तिमें भी अद्विीपोंके मनुष्योंको एकोरुक, लांगलिक आदि बतलाया है मगर नाममात्रसे । यथा
‘एकोरुक लंगुलिका वेसणका भासका य णामहि ।
पुव्वादिसुं दिसासुं चउदीवाणं कुमाणुसा होंति ॥२४८४॥" आगे भी कमानुषोंको 'तण्णामा' लिखकर एकोरुक आदि नाम बतलाया है। अतः एकोरुक आदिका शब्दार्थ लेना विचारणीय है । अस्तु
तिलोयपण्णत्तिसे वृहत् क्षेत्र समासमें द्वीपोंका अवस्थान भी भिन्न रूपसे बतलाया है । यह केवल ग्रन्थगत भेद नहीं है किन्तु परम्परागत भेद है ।
'एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धैर्येन षण्णवतिरन्तरद्वीपका भाष्येषु दृश्यन्ते । अनाष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगमादिषु षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात् ।'-सिद्धक्षे० टीका, भा० १, पु० २६७ ।