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६४ : जेनसाहित्यका इतिहास
रहने बाले मनुष्यों का प्रमाणादि, मेरूका वर्णन, विदेह क्षेत्रके तीर्थङ्करोंका कथन जम्बूद्वीपके सूर्य चन्द्रादिका कथन है । यह सब कथन तिलोय पण्णत्तिके प्रायः समान है ।
ति०प०के चौथे अविकारका नाम नरलोकपण्णत्ति अथवा मनुष्यलोक प्रज्ञप्ति है । उसका प्रारम्भ पैंतालिस लाख योजन प्रमाण मनुष्यलोकके निर्देशसे होता है । क्षेत्र समास की भी वही शैली है । अन्तर केवल इतना ही है कि ति०प०में प्रत्येक वर्णन विस्तार से है और क्षेत्रसमासमें संक्षेप से है । उसीका सूचक 'समास' शब्द है । वर्णनकी समानताकी दृष्टिसे कुछ गाथाएँ उद्धरणीय हैं'चत्तारिदुवारा पुण चउद्दिसि जंबूदीवस्स ॥१६॥ चउजोयणविच्छिन्ना अद्वेव य जोयणाइ उच्चिट्टा | उभओवि कोसकोसं कुड्डा वाहल्लओ तेसि ॥ १७ ॥
पुवेण होइ विजयं दाहिणओ होइ वेजयंतं तु । अवरेणं तु जयंतं अवराइय उत्तरे पासे || १८ || ' - वृ०क्षे०सं० ।
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विजयंतवेजयंतं जयंत अपराजयंतणामेहिं । चत्तारि दुवाराई जंबूदीवे चउदिसासुं ॥४१॥ पुव्वदिसाए विजयं दक्खिणआसाए व इजयंतं हि । अवरदिसाए जयंतं अवराजिदमुत्तरासाए ॥४२॥ एदाणं दाराणं पत्तेक्कं अट्ठजोयणा उदओ ।
उच्छेद्ध रुंद होदि पवेसो वि वाससमं ॥४३॥
गणितके नियमों में तो प्रायः समानता है ही, किन्तु गणितके सूत्रोंमें भी
समानता कहीं-कहीं पाई जाती है । यथा
अभीष्ट स्थान में मेरुका विस्तार निकालनेकी रीति
जत्थिच्छसि विक्खंभं मंदिरसिहराहि उवइत्ताणं ।
एक्कारसहि विभत्तं सहस्ससहियं च विक्खंभं ॥ ३०७ ॥ वृ०क्षे०स० ।
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जत्थिच्छसि विक्खभं मंदरसिहराउ समवदिण्णाणं ।
तं एक्कार भजिदं सहस्ससहिदं च तत्थवित्थारं ॥ १७१९ ॥
चूलिका विस्तार
- ति०प०४ ।
जत्थिच्छसि विक्खंभं चूलीयसिहराहि उवइत्ताणं । तं पंचहि पविभत्तं चउहिं जुयं जाण विक्खंभं ॥ ३५० ॥
- वृ० क्षे०स० १ |