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६२ : जैनसाहित्यका इतिहास आदि) जो क्रम दिया है वह भी न तो पूरी तरहसे आपसमें मेल खाता है और न उक्त क्रमसे ही मेल खाता है।
तत्त्वार्थ सूत्रका तीसरा और चौथा अध्याय लोकानुयोगसे सम्बद्ध है। तीसरे अध्यायमें अधोलोक और मध्यलोकका कथन है और चौथे अध्यायमें ऊर्ध्वलोकका कथन है । वह कथन सूत्रात्मक होनेसे बहुत संक्षिप्त है और उसमें कुछ मुख्य-मुख्य बातोंका ही कथन है । तत्त्वार्थ सूत्रकी टीकाओंमें विशेष कथन पाया जाता है। उसमें भी पूज्यपाद रचित सर्वार्थ सिद्धि टीकामें किंचित् ही विशेष कथन है। हाँ, तत्त्वार्थ वार्तिकमें विवरणात्मक विशेष कथन है। उसके पश्चात् हरिवंश पुराणमें भी विशेष कथन है जिसका परिचय पोछे कराया गया है। किन्तु ये सब ग्रन्थ लोकानुयोगमें गर्भित नहीं होते । अतः यहाँ उनका सामान्य उल्लेख मात्रकर दिया गया है।
दिगम्बर परम्परामें तिलोय पण्णतिके पश्चात् त्रिलोकसार ही एक ऐसा ग्रन्थ है जो लोकानुयोग विषयक साहित्यमें गणनीय है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें इस बीचमें जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण नामके एक महान् जैनाचार्य हुए जिन्होंने आवश्यक सूत्र पर विशेषावश्यक भाष्यकी रचना की। उसके कारण भाष्यकारके नामसे भी वे प्रसिद्ध है । उन्होंने वृहत् क्षेत्र ममास, वृहत्संग्रहिणी विशेषणवती आदि अनेक ग्रंथों की रचना की है, जिनमेमे वृहत क्षेत्र ममास और वृहत्संग्रहणी लोकानुयोगसे संबद्ध है। और विशेषणवतीमें भी अनेक चर्चाएँ लोकानुयोगसे सम्बद्ध है। किन्तु वह केवल लोकानुयोग विषयक प्रकरण नहीं हैं। किन्तु उसमें विभिन्न सैद्धान्तिक शंकाओंका समाधान किया गया है।
समय
जेसलमेरके भण्डारसे विशेषावश्यक भाव्यकी एक प्राचीन प्रति मुनि जिन विजय जी को प्राप्त हुई है। उसके अन्तमें उसका रचनाकाल' शकसम्बत् ५३१ (वि० सं० ६६६) दिया हुआ है। और उस परसे मुनि जीने श्री जिनभद्र गणि क्षमा क्षमणका अवसान काल विक्रमकी सातवीं शताब्दीका अन्तिम चरण निश्चित किया है । जो उचित ही है।
१. 'पंचसता इगतीसा सगणिवकालस्स वट्टमाणस्स ।
तो चेत्त पुण्णिमाए बुधदिणसातिमि णक्खत्ते ॥ रज्जे णु पालणपुरे सी (लाइ) च्चम्मि णरवरिन्दम्मि । वलभीणगरीए इमं महविमि जिणभवणे ॥" भा० वि०, स्व० बहादुर सिंह सिंघी स्मृति ग्रन्थमें मुनिजीके "जिनभद्र गणि क्षमा श्रमणनो समय' शीर्षक निवन्धसे उद्धृत ।