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५२ : जेनसाहित्यका इतिहास तरह त०व०में मेरुस्थ जिनालयोंमें स्थित देवच्छन्दका जो विस्तार बतलाया है ति० १० (४।१८६६) के अनुसार वह लोकविनिश्चयके कर्ताका मत है। त०वा०में नन्दनादिवनों में प्रासादोंका जो विस्तार और ऊँचाई बतलाई है ति० प० (४-१९७५) के अनुसार वह भी लोकविनिश्चयके कर्ताका मत है। तवा में बलभद्र नामक कूट नन्दनवनमें बतलाया है सौमनसमें नहीं बतलाया । किन्तु ति०प०में दोनों वनोंमें बतलाया है। त०वा में बलभद्रकूट की ऊंचाई एक हजार योजन, मूलमें विस्तार एक हजार योजन, और अग्र विस्तार पांच सौ योजन है । ति०प० (४।१९८२) के अनुसार यह भी लोक विनिश्चयका मत है। किन्तु त०वा में वक्षार पर्वतोंकी ऊँचाई नील निषध पर्वतके समीपमें चार सौ योजन और क्रमसे बढ़ते बढ़ते मेरुके पासमें पांच सौ योजन बतलाई है। ति० प० (४-२०१८-१९) में बिल्कुल इतनी ही बतलाई है और लोकविनिश्चयमें निषध नीलके समीप २५०, मेरुके पासमें ५०० योजन बतलाई है। यह कथन त०वा०का लोकविनिश्चयसे नहीं मिलता, ति० ५० से मिलता है ।
त०वा० (पृ० १७५) में सौ काचनाद्रि बतलाये हैं । ति० प० (४।२११६१७) में इसे कुछ आचार्योंका मत कहा है।
लवण समुद्रका वर्णन यों तो दोनोंमें समान है किन्तु कई बातोंमें अन्तर है। त०वा में (पृ० १९३) १००८ पातालोंके अन्तरालमें और भी पाताल बतलाये हैं । और कुल पाताल ७८८० बतलाये हैं। ति० प० (४।२००९) में १००८ ही पाताल बतलाये हैं। ति० प० (४।२४३६) में स्वभावसे ही शुक्ल पक्षमें जलकी वृद्धि और कृष्ण पक्षमें हानि बतलाई है किन्तु त०वा०में इसका कारण १. 'अर्हदायतन-मध्य-देशनिवेशिनः षोडशयोजनायाम-तदर्घविष्कम्भोच्छ्या रत्न
मया देवच्छन्दाः ।' त०वा०, पृ० १७८ । सोलसकोसुच्छेहं समचउरस्सं तदद्धवित्थारं।
लोयविणिच्छयकत्ता देवच्छंदं परूवेई ॥१८६६।-ति० प० ४ । २. 'तेषामुपरि द्विषष्ठियोजन-द्विगव्यूतोच्छाया सक्रोशैत्रिंशत् योजनविष्कम्भास्ता
वत्प्रवेशा एवाष्टौ प्रासादाः।-त.वा., पृ. १७९ । 'वासो पणधणकोसा तदुगुणा मंदिराण उच्छेहो।
लोयविणिच्छकत्ता एवं माणे पस्वेदि ॥१९७५॥'-ति० ५० ४ । ३. 'नन्दनवने बलभद्रकूटं योजनसहस्रोच्छायं मूलमध्यागेषु योजनसहस्रार्धाष्टम
योजनशतपञ्चयोजनशतविस्तारम्'-त०व०, पृ० १७९ । 'दसविंदं भूवासो पंचसया जोयणाणि मुहवासो । एवं लोयविणिच्छय मग्गायणिए मुदीरेदि ॥१९८२॥'-ति० प० ४ ।