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३२ : जनसाहित्यका इतिहास
सुषमा। इन छ कालों का संक्षेप में वर्णन है। इस तरह भरत क्षेत्र का वर्णन समाप्त होता है। उसके पश्चात् जम्बूद्वीप के शेष क्षेत्रों और पर्वतों का वर्णन है।
ये ति० प० के कुछ उल्लेखनीय विशेष कथन हैं।
ति० ५० में अनेक ऐसी गाथाएं भी पाई जाती हैं जो उपलब्ध अन्य ग्रन्थोंमें भी ज्यों की त्यों पाई जाती हैं। ऐसे ग्रन्थोंमें मूलाचार, समयसार, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और भगवती आराधनाका नाम उल्लेखनीय हैं। ये सभी ग्रन्थ प्राचीन हैं और दि० जैन साहित्य में इनका स्थान प्रथम कोटि में गिना जाता है । कुछ गाथाओं का विवरण नीचे दिया जाता है ।।
ति० प० के सिद्धलोक नामक नौवें अधिकार में १८-६५ गाथाओं में सिद्धत्व की हेतु भूत भावनाओं का वर्णन है। इन गाथाओं में कितनी ही गाथाएँ प्रवचनसार समयसार पञ्चास्तिकाय में और नियमसार में ज्यों की त्यों पाई जाती हैं, और तुलनात्मक अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये गाथाएँ उन ग्रन्थोंसे ही ति० ५० में ली गई हैं क्योंकि जितनी 'फिट' उनकी स्थिति उनके मूल ग्रन्थोंमें है उतनी यहाँ नहीं है। उदाहरणके लिये तिलो० प० के नौवें अधिकारके अन्तमें कुन्थुनाथमे लेकर महाबीर पर्यन्त तीर्थंकरोंको नमस्कार किया है। महावीर भगवान्को नमस्कार करने वाली गाथा प्रवचनसारकी आद्य मंगल गाथा है जो इस प्रकार है
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धौदघाइकम्ममलं ।
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥७३॥ प्रवचनसारमें इसके पश्चात् ‘सेसे पुण तित्थयरे' गाथाके द्वारा शेष तीर्थंकरोंको नमस्कार किया है और सबसे प्रथम भगवान् महावीरको नमस्कार करनेका कारण उक्त गाथामें ही बतला दिया है कि प्रचलित धर्मतीर्थके कर्ता वे ही हैं । साथ ही 'एस' शब्दकी स्थिति भी प्रवचनसारमें ही ठीक घटित होती है। ति०प०में तो उसका कोई प्रयोजन ही दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः उक्त गाथा प्रवचनसारसे ही ली गई है। इसी तरह अन्य गाथाओंके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए।
मूलाचारका तो ग्रन्थकारने नामोल्लेख भी किया है यह पहले लिख आये हैं। उसके पर्याप्ति अधिकारकी अन्य गाथाएँ ति०प०में ज्योंकी त्यों या कुछ पाठ परिवर्तनके साथ पाई जाती हैं।
इसी तरह भगवती आराधनासे भी कुछ गाथाएं ली गई हैं।