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________________ ३८० : जैनसाहित्यका इतिहास की व्याख्यामें उन्होंने उसको खूब अपनाया है फिर भी विस्मरणवश ही उनसे उक्त भूल हो गई जान पड़ती है। २. सूत्र. ९-४५ की वृत्तिमें उन्होंने लिखा है कि- 'कुछ' असमर्थ महर्षि शीतकाल वगैरह में कम्बल आदि ले लेते हैं। किन्तु न तो वे उसे धोते हैं, न सीते है । और न उसके लिए कोई प्रयत्न वगैरह ही करते हैं । शीतकाल बीतनेपर उसे त्याग देते हैं । कुछ मुनि शरीरमें दोष उत्पन्न होनेसे लज्जावश वस्त्रको ग्रहण कर लेते हैं । यह व्याख्यान भगवती आराधनामें कहे हुए अभिप्रायसे अपवाद रूप जानना चाहिए ।' किन्तु भगवती आराधनामें इस तरहका कोई विधान नहीं है। हां, उसके टीकाकार अपराजितसूरिने अपनी विजयोदया टीकामें आचेलक्यं आदि दस कल्पोंका वर्णन करनेवाली गाथा ४२१ की व्याक्या करते हुए आचारांग आदि सूत्र ग्रन्थोंमें पाये जानेवाले कुछ वाक्योंके आधारपर यह स्वीकार किया है कि यदि भिक्षुका शरीरावयव सदोष हो, या वह परीषह सहने में असमर्थ हो तो वह वस्त्र ग्रहण कर लेता है । · श्रुतसागरजीका अभिप्राय भगवती आराधनाकी विजयोदया टीकासे ही जान पड़ता है । उसीके लिये उन्होंने भगवती आराधना लिख दिया है । शैली और भाषा श्रुतसागरजीकी शैली और भाषा, दोनों सुबोध हैं । न तो उनकी शैलीमें ही जटिलता है और न संस्कृत भाषामें ही । प्रथम वह सूत्रके शब्दोंका व्याख्यान करते हैं और फिर उसका सरल सुबोध संस्कृतमें स्पष्टीकरण करते हैं । जहाँ उनका विषयपर अधिकार है वहाँ भाषापर भी पूर्णाधिकार है । वाक्य रचना सरल और संक्षिप्त है । उसे दुरुह बनानेका प्रयत्न नहीं किया गया है। बल्कि सरल और सुस्पष्ट करनेका ही प्रयत्न किया गया है । उसे पढ़कर सर्वार्थसिद्धिमें कथित कोई बात अस्पष्ट नहीं रहती । श्रुतसागरने कुन्दकुन्दाचार्यके षट् प्राभृतोंपर भी टीका बनाई है, किन्तु उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली । इसका कारण यह हो सकता है कि षट् प्राभृतोंकी कोई अन्य टीका उनके सामने नहीं थी । जबकि तत्त्वार्थ सूत्रकी अनेक टीकाएँ उनके सामने उपस्थित थीं। फिर भी जो प्रौढ़ता इस टीका में हैं, षट् प्राभृतोंकी टीकामें उसका आभास नहीं मिलता। मालूम होता है कि यह टीका प्रोढ़वयमें लिखी गई है । १. केचिवसमर्था महर्षयः शीतकालादी कम्बलशब्दावाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति न सीव्यन्ति, न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभ्यवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम् - ५० टी० पृ० ३१६ .
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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