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...... तत्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३७९ .. - तत्त्वार्यसूत्रकी कनरी टीका लिखी गई है उसमें उस प्रश्नकर्ताका नाम 'सितम्य' पाया जाता है। ' सर्वार्थसिद्धिके प्रारम्भमें पाये जाने वाले मंगल श्लोक 'मोक्षमार्गस्य नेतार' मादिका व्याख्यान भास्करनन्दिकी तरह श्रुतेसागरने भी किया है। इससे प्रकट होता है कि १३वीं शताब्दीसे इस मंगल श्लोकको सूत्रकारका माना जाने लगा था।
श्रुतसागर सूरिका पूरा व्याख्यान एक तरहसे सर्वार्थ सिदि नामक वृत्तिका ही व्याख्यान है। जो बातें वहाँ संक्षेपमें परिमित शब्दोंमें कहीं गई है उनको यहाँ स्पष्ट शब्दोंमें कहा गया है । तथा यथास्थान ग्रन्थान्तरोंसे उद्धरण देकर विशेष कथन भी किया गया है। ग्रन्थान्तरोंसे उद्धरणोंकी संख्या काफी है और उससे प्रकट होता है कि श्रुतसागरने अपने पूर्ववर्ती आचार्योके द्वारा रचित प्रायः सभी प्रमुख ग्रन्थों को पढ़ा था।
उन्होंने पाणिनिसूत्रोंके उद्धरण तो दिये ही हैं । कातंत्र व्याकरणके भी उद्धरण बहुतायतसे दिये हैं । कातंत्र व्याकरण भी जैनाचार्य रचित है। किन्तु उसका उपयोग इस तरह किसी अन्य टीकाकारके द्वारा हमारे देखनेमें नहीं आया। ____ इसमें सन्देह नहीं कि श्रुतसागरजी बहुश्रुत विद्वान थे। किन्तु उनके दो स्खलन उल्लेखनीय हैं।
प्रथम उन्होंने सूत्र २-५३ की व्याख्यामें लिखा है
'गुरुदत्तपाण्डवादोनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्नास्त्यनपवायुनियम इति न्यायकुमुदचन्द्रोदये प्रभाचन्द्रेणोक्तमस्ति ।'
अर्थात् न्यायकुमुद चन्द्रोदयमें प्रभाचन्द्रने कहा है कि गुरुदत्त और पाण्डव मादिका उपसर्गके द्वारा मुक्तिलाभ देखा जाता है अतः अनपवायुका नियम नहीं है।
किन्तु प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रमें कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है। बसलमें उक्त कथन प्रभाचन्द्रके तत्त्वार्थ टिप्पणमें है । वहां उन्होंने लिखा है
'चरम देहस्योत्तमविशेषणात्तीर्थकरदेहो गृह्यते। ततोऽन्येषां घरमदेहानामपि गुरुवत्त पाण्डवादीनामग्न्यादिना मरणदर्शनात्' । अर्थात् इस सूत्रमें धर्मदेहका उत्तम विशेषण है और उससे तीर्थकरके शरीरका ग्रहण किया जाता है। तीर्थकरके सिवाय जो अन्य चरम शरीरी है जैसे गुरुदत्त और पाण्डव वगैरह। उनका अग्नि भादिसे मरण पाया जाता है। .
श्रुतसागरजीके सन्मुख प्रभाचन्द्रका टिप्पण अवश्य था, सत्संख्या बादि सूत्र