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३६८ : जेनसाहित्यका इतिहास
इस तरह मंगल, वृत्तिका नाम तथा उद्देश बतलाने के पश्चात् 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि श्लोककी व्याख्यासे इस वृत्तिका आरम्भ होता है । यह श्लोक सर्वार्थसिद्धिके प्रारम्भमें पाया जाता है । किन्तु पूज्यपादने उसकी व्याख्या नहीं की और तत्त्वार्थवातिक तथा तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिकमें तो उक्त श्लोक ही नहीं आता है। जिससे प्रतीत होता है कि उक्त मंगल श्लोक सर्वार्थ सिद्धिकारका होना चाहिए। किन्तु उत्तरकालीन प्रायः सभी टीकाकारोंने, जो विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीमें तथा उसके पश्चात् हुए है, उक्त मंगल श्लोकको सूत्रकारका मानकर उसकी भी व्याख्या की है।
योगदेवकी वृत्ति सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकको ही सामने रखकर रची गई है; क्योंकि उसका दोनोंके साथ शब्दशः मेल पाया जाता है। फिर भी उन्होंने पादपूज्यके साथ अकलंकदेवके नामका उल्लेख नहीं किया, यह देखकर आश्चर्य होता है। वृत्ति संस्कृतमें है और सूत्रके मात्र भावार्थको स्पष्ट कर देना ही उसका प्रयोजन जान पड़ता है। कहीं-कहीं प्रसंगवश कुछ विशेष कथन भी किया गया है, किन्तु वह सब उक्त दोनों ग्रन्थोंका ही ऋणी है। एक तरहसे इसे सर्वार्थ सिद्धिका संक्षिप्त संस्करण कह सकते हैं । भाषा साधारण है, शब्दोंमें उलटफेर करदेनेके कारण सर्वार्थसिद्धिका माधुर्य और सौष्ठव इसमें नहीं है ।
परिचयके लिए नीचे दो सूत्रोंकी टीकाएं दी जाती हैं१. तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।।२।।
येन स्वरूपेण जीवाद्यर्थो व्यवस्थितस्तेनैव प्रतीयमानतत्त्वार्थः, तस्य श्रद्धानं तत्त्वार्थे विपरीताभिनिवेशाभावात् सम्यग्दर्शनं सम्यक्त्वं ॥ २. -प्रमाणनयरधिगमः ॥
प्रमाणनयानने आचार्यों विशेषेण भणिष्यति । प्रमाणेन नयैश्च जीवादितत्त्वार्थानांमधिगमो निश्चयो भवति ।
उक्त दो उद्धरणोंसे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि सब भूत्रोंकी टीका इतनी संक्षिप्त है। ऐसी संक्षिप्त टीकाके उदाहरण तो कम ही हैं। इसकी प्रतिकी पृष्ठ संख्या १४८ है । प्रत्येक पृष्ठमें १० पंक्तियाँ हैं और प्रत्येक पंक्तिमें बत्तीस अक्षर हैं । अतः टीका लगभग १५०० श्लोक प्रमाण है।
टीकाकी अन्तिम प्रशास्ति इस प्रकार है
'शुद्धेद्वतपःप्रभावपवित्रपादपपरजःकिंजल्कपुञ्जस्य मनः कोणकदेशकोडीकृताखिलशास्त्रार्थान्तरस्य पण्डितश्रीबन्धुदेवस्यगुणप्रबन्धानुस्मरणजातानुग्रहेण प्रमाणनयनिर्णीताखिलपदार्थप्रपञ्चान श्रीमद् भुजबल भीमभूपालमार्तण्डसभायामनेकपालब्ध तर्कचक्रांकल्केनावलानरादीनामात्मनश्चोपकारार्थेन (यं न ) पांडित्यमदविलासात्