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________________ . तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३६७ लोकप्रिय रहा है । उसपर पूज्यपाद देवनन्दिने सर्वार्थसिद्धि नामक टीका संस्कृतमें रची। और सर्वार्थसिद्धिको गर्भित करके अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक जैसा महान् दार्शनिक ग्रन्थ रचा। तथा स्वामी विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवातिक ग्रन्थ रचा। इन तीनों टीका ग्रन्थोंमें तत्त्वार्थसूत्रके रहस्योंके उद्घाटनके साथ ही साथ तत्कालीन जैन तथा जैनेतर विचारधाराओंका चित्रण तथा निरसन बड़े पण्डित्यपूर्ण ढंगसे किया गया है । इन तीनों महान् टीका ग्रन्थोंके पश्चात् भी तत्त्वार्थसूत्रपर अनेक छोटी बड़ी टीकाएँ विभिन्न ग्रन्थकारोंने रची, किन्तु उन सबमें प्रायः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकका ही चर्वितचर्वण पाया जाता है । ऐसी दो टीकाएं मुझे देखनेका सौभाग्य प्रथम वार ही प्राप्त हुआ है। ये दोनों टीकाग्रन्थ देहलीके धर्मपुराके लाला हरसुखराय शुगनचन्दजीके मन्दिरके शास्त्र भण्डारसे लाला पन्नालालजी अग्रवाल द्वारा प्राप्त हुए थे। इनमेंसे एक टीका के रचयिता पं० योगदेव हैं । इस टीकाका नाम सुखबोष है। टीकाका आरम्भ करते हुए उन्होंने महावीर स्वामीको नमस्कार करते हुए लिखा है विनाटसर्वकर्माणं . मोक्षमार्गोपदेशकम् । तद्गुणोद्भूतिलाभाय सर्वज्ञं जगतो गुरुम् ।।१।। आलम्बनं भवाम्भोधो पततां प्राणिनां परम् । प्रणिपत्य महावीरं लब्ध्वा (ब्धा)ऽनन्त चतुष्टयम् ।।२।। संक्षेपितागमाव्यासां (?) मुग्धबुद्धि प्रबोधिकाम् । सुखबोधाभिधां वक्ष्ये वृत्ति . तत्त्वार्थगोचराम् ॥३॥ अर्थात्-'मोक्षमार्गके उपदेष्टा, सर्वकर्मोंसे रहित, जगतके गुरु, संसाररूपी समुद्रमें गिरे हुए प्राणियोंके आलम्बन, अनन्त चतुष्टयके धारी भगवान महावीरको उन गुणोंकी प्राप्तिके लिए नमस्कार करके, मुग्धबुद्धि जनोंके प्रबोधके लिए सुखबोध नामकी तत्त्वार्यसूत्रकी संक्षिप्त वृत्ति कहूँगा।' आगे लिखा है-पादपूज्य-विद्यानन्दाभ्यां यत् वृत्तिद्वयमुक्तं तत् केवलतांगमपाठकरबलाबालादिभिर्ज्ञातुं न शक्यते । ततः संस्कृत-प्राकृत-पाठकानां सुखज्ञानकारणं वृत्तिरियमभिधीयते ।' अर्थात्-पादपूज्य और विद्यानन्दने जो दो वृत्तियाँ रची हैं, वे तर्क और आगमसे भरपूर हैं । अतः उनसे अनभिज्ञ स्त्रियाँ और बालजन उन्हें नहीं पढ़ सकते। इस लिए संस्कृत और प्राकृतके पाठकोंको सुखपूर्वक ज्ञान करानेके लिए यह वृत्ति रची जाती है।'
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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