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२६ : जेनसाहित्यका इतिहास आवश्यक है वहाँ उसके कुछ विशेष कथन भी हैं जो जैन करणानुयोगका तुलनात्मक अध्ययन करने वालोंके लिये ही उपयोगी नहीं है किन्तु भारतीय इतिहासके अन्वेषकोंकी दृष्टिसे भी उपयोगी है। उन्हींकी ओर ध्यान आकृष्ट किया जाता है।
सबसे प्रथम ध्यान देने योग्य है उसकी शैली, उसकी चर्चा आगे की जायेगी।
प्रारम्भमें मंगलकी चर्चा परम्परागत होते हुए भी कई दृष्टियोंसे उल्लेखनीय है-प्रथम गा० ८ में मंगलके पर्याय शब्द-पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य बतलाये हैं। फिर मंगल शब्दकी तीन व्युत्पत्तियां की हैं-मलका गालन करता है इसलिये मंगल है। मंग-सुखको लाता है इसलिये मंगल है और पूर्व में आचार्यों द्वारा मंगलपूर्वक ही शास्त्रका पठन पाठन हुआ है उसीको यह लाता है इसलिये मंगल है। फिर शास्त्रके आदि अन्त और मध्यमें नियमसे मंगल करनेका विधान है और उसका फल बतलाते हुए लिखा है कि शास्त्रके आदिमें मंगल करनेसे शिष्य शास्त्रके पारगामी होते हैं, मध्यमें मंगल करने पर निर्विघ्न विद्याकी प्राप्ति होती है और अन्तमें मंगल करनेसे विद्याका फल प्राप्त होता है ( गा० २८-२९ ) ।
विशेषावश्यक भाष्यके आदिमें भी मंगलकी चर्चा है किन्तु वह इससे कुछ भिन्न है। उसमें भी शास्त्रके आदि अन्त और मध्यमें मंगल करनेका विधान है। किन्तु प्रथम मंगलका फल निर्विघ्न रूपसे शास्त्रके अर्थका पारगामी होना है। मध्य मंगलका फल शास्त्रकी स्थिरता और अन्त मंगलका फल उसकी अव्युच्छित्ति बतलाया है। ( वि० भा० गा० १३-१४ ) । यह उससे भिन्न है । ___ इसी तरह मंगल शब्दकी व्युत्पत्ति भी भिन्न है-जिसके द्वारा हित प्राप्त किया जाये वह मंगल है। मंग अर्थात् धर्मको लाता है इसलिए मंगल है। मां (मुझको) संसारसे छुड़ाता है इसलिए मंगल है (गा० २२-२४)
विद्यानन्दिने आप्तपरीक्षा टीकाके आरम्भमें जो मंगलकी चर्चा की है उसमें मंगल शब्दको व्युत्पत्ति ति०प० के अनुसार ही है। और धवलाटीकाके आरम्भमें जो मंगलकी चर्चा है (षट्खं० पु. १, पृ० ३१) वह तो ति०प० की ही ऋणी है ।
ति०प० १-४० आदिमें राजा, अधिराज, महाराज, अर्धमण्डलीक', मण्डलीक,
१. शुक्रनीतिमें (१।१८२-१८४) मण्डलीकको राजा और महाराजासे छोटा
बतलाया है। जिसकी वार्षिक भूमि करसे आय ४ लाखसे १० लाख चाँदीके कार्षापण पर्यन्त हो वह मण्डलीक और ११ लाखसे २० लाख पर्यन्त आय होने पर राजा तथा २१ लाखसे ५० लाख पर्यन्त होने पर महाराजा बतलाया है।