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________________ ३६४ : जेनसाहित्यका इतिहास टीकामें द्रव्य संग्रहकी किसी अन्य वृत्तिका कोई उल्लेख नहीं किया है। और न उनकी टीका पर द्रव्य संग्रह वृत्तिका कोई विशेष प्रभाव ही परिलक्षित होता है । तथापि गाथा १० की टीकामें जो समुद्घात तथा उसके सात भेदोंका स्वरूप बतलाया गया है वह दोनों टीकाओंमें शब्दशः मिलता है। किन्तु प्रभाचन्द्रकृत वृत्तिमें उसकी अन्य शैली जितनी सुव्यवस्थित है उतनी ब्रह्मदेवकी टीकामें नहीं है । यथा-'कोऽत्र दृष्टान्तः यथा प्रदीपो महद्भाजनप्रच्छादितस्तद्भाजनानन्तरं प्रकाशयति लघुभाजनप्रच्छादितस्तद् भाजनानन्तरं प्रकाशयति इति । किन्त असहमहदो समुद्धात सप्तकं वर्जयित्वा तत्राणुगुरुत्वाभावः । समुद्घातभेदानाहवेयणकसाय' ।' [-प्रभा० वृ०] 'कोऽत्र दृष्टान्तः (अक्षरशः समान है)" प्रकाशयति । पुनरपिकस्मात् असमुहदो असमुद्घातात् वेदनाकषायविक्रिया' 'समुद्पातवर्जनात् । तथा चोक्तं सप्तसमुद्घातलक्षणं-वेयणकसाय...।' रेखांकित पदोंका मिलान करनेसे उक्त बात स्पष्ट हो जाती है । अतः ब्रह्मदेवजीने प्रभाचन्द्रकृत वृत्तिको देखा हो यह संभव हो सकता है । भास्कर नन्दिकी तत्त्वार्थ' सूत्रवृत्ति ___ तत्त्वार्थ सूत्रकी यह वृत्ति एक तरहसे पूज्यपादकी सर्वार्थ सिद्धिका ही रूपान्तर है । टीकाकारने उसीका अक्षरशः अनुसरण किया है और यत्र-तत्र अकलंक देवके तत्त्वार्थ वातिक तथा कुछ अन्य ग्रन्धकारोंके ग्रन्थोंसे भी उसमें आदान किया गया है। किन्तु जो कुछ लिया गया है उसको सुन्दर ढंगसे सुनियोजित करके ऐसा रूप दिया गया है जिसे देखकर टीकाकारकी विद्वत्ता तथा सुरुचिपूर्ण शैलीका प्रभाव पाठकपर पड़ता है। जैसे, प्रथम सूत्रकी व्याख्या करते हुए टीकाकारने अन्य वादियोंके द्वारा माने गये मोक्षके उपायोंका चित्रण तथा समीक्षा करते हुए सोमदेव रचित यशस्तिलक चम्पूके छठे आश्वाससे कई पृष्ठ ज्योंके त्यों और यथायोग्य परिवर्तनके साथ अपना लिये हैं । सूत्र ३-१० की व्याख्यामें तत्त्वार्थ वार्तिकसे विदेह क्षेत्रका वर्णन संक्षेपमें बड़े सुन्दर ढंगसे दिया गया है। सूत्र ३-३८ की व्याख्यामें भी तत्त्वार्थ वार्तिकसे लौकिक और लोकोत्तर प्रमाणोंका संकलन किया गया है। इसी तरह सर्वार्थ सिद्धि टीकाके अनुसरणके साथ-साथ तत्त्वार्थ वार्तिकके भी आवश्यक अंशोंको इसमें संगृहीत कर किया गया है। फिर भी इसका प्रमाण सर्वार्थसिद्धिसे बड़ा नहीं है। और संस्कृत भाषा तो सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थ वातिकके ही अनु १. इसका प्रकाशन मैसूर यूनिवर्सिटीसे हुआ है ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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