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तत्त्वार्थविषयक टीका - साहित्य : ३६३
समयके सम्बन्धमें पहले लिख भी आये हैं । जैसलमेरके भण्डारमें ब्रह्मदेवकी द्रव्य संग्रह वृत्तिकी एक प्रति मौजूद है जो सम्वत् १४८५ में माण्डवमें लिखी गई थी । अतः ब्रह्मदेवजी के समय की अन्तिम अवधि सम्वत् १४८५ से पूर्व ठहरती है और उन्होंने द्रव्य संग्रह वृत्तिमें धारा नरेश राजा भोजके समयमें द्रव्य संग्रहके रचे जाने का उल्लेख किया है, अतः वह विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके पश्चात् हुए हैं । उनकी टीकाओंपर जयसेनका बहुत प्रभाव है । जयसेनने अपनी टीकाएँ वि० सं० १२०० के पश्चात् रची हैं क्योंकि अपनी पञ्चास्तिकाय टीका ( पृ० ८ ) में उन्होंने वीरनन्दिके आचारसारके चौथे अध्यायके ९५-९६ नम्बरके पद्य उद्धृत किये हैं और वीरनन्दिने अपने आचारसारकी कनड़ी टीका वि० सं० १२१० में पूर्ण की थी । अतः चूं कि जयसेन विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्धमें हुए हैं। इस लिये ब्रह्मदेव उसके पश्चात् ही हुए । द्रव्य संग्रह गाथा १३ की टीकामें चौथे गुण स्थानका जो वर्णन है । वह पं० आशाधरजीके एक श्लोकसे प्रायः शब्दशः मिलता है । यथा
'निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् इन्द्रियसुखादि परद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीत निश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादि सदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमितं तलवरगृ होत तस्करवदात्मनिन्दासहितः सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेलंक्षणम् ।' - द्रव्य सं० वृत्ति ।
इसकी तुलना पं० आशाधरजीके नीचे लिखे श्लोकसे कीजिये - भूरेखादिसदृक्कषायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञाया हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवाऽऽत्मनिन्दादिमान् शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोऽप्यधैः ॥ ३३ ॥
- सागारधर्मामृत अध्या० १ ।
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१२९६ में पूर्ण की थी ।
इतना साम्य एकके द्वारा दूसरेको देखे विना अकस्मात् संभव नहीं है । किन्तु किसने किसको देखा है, यह निश्चित प्रमाणोंके बिना कह सकना संभव नहीं पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृतकी टीका वि० सं० अतः वह विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें हुए हैं यह सुनिश्चित है । अब यदि उक्त श्लोक उन्होंने द्रव्यसंग्रह वृत्तिको देखकर रचा है तब तो ब्रह्मदेव जयसेन और आशाधरके मध्यमें विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी में हुए हैं । और यदि ब्रह्मदेवने सागार धर्मामृतको देखा है तो यह विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके पश्चात् हुए हैं। इसमेंसे प्रथमकी ही विशेष संभावना है ।
अन्तमें एक बात और भी लिख देना आवश्यक है । ब्रह्मदेवजीने अपनी