SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ : जैनसाहित्यका इतिहास जन्मकी तरह दुर्लभ बतलाया है। तथा अन्यत्र भी उनका आदरपूर्वक स्मरण किया है । इससे प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारको उनके प्रति गहरी आस्था थी। मिथ्यादृष्टियोंका वर्णन करते हुए ग्रन्थकारने गोपूजा, पीपल वृक्ष की पूजा आदि मिथ्या क्रियाओंका निर्देश किया है । (म० १, श्लो० ४२-४३)। भाव संग्रह (गा० २६३) में जो सम्यग्दर्शनके संवेग निर्वेद आदि आठ गुण बतलाये है । उन आठोंके लक्षण भी इस ग्रन्थमें दिये गये हैं। मुनियोंमें दोष देखनेवालोंकी भी निन्दा की गई है (श्लो० ८४-८६)। सम्यग्दर्शनके प्रकरणमें ये बातें विशेष हैं। दूसरे अध्यायमें सम्यग्ज्ञानका वर्णन है। इसके प्रारम्भमें ही ज्ञानको प्रमाण मानकर सन्निकर्ष आदिको प्रमाण माननेवाले नैयायिक आदिके मतोंकी आलोचना की गई है। मतिज्ञानके भेद-प्रभेदोंका वर्णन करते हुए बुद्धिऋद्धिके भेदोंका भी स्वरूप बतलाया गया है (३४-४३ श्लो०)। श्रुतज्ञानके वर्णनमें द्वादशांगके भेद-प्रभेदोंका, तथा अंगवाह्यके भेदोंका स्वरूप बतलाया है। उसमें धवला जयधवलामें बतलाये हुए स्वरूपसे कहीं कुछ अन्तर भी है। जैसे, दशवकालिकका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है। द्रुम पुष्पित आदि दस अधिकारोंके द्वारा जिसमें साधुओंके आचरणका वर्णन हो वह दशवकालिक है। वर्तमान श्वेताम्बरपरम्परा मान्य दशवकालिकमें द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्याय हैं। श्रुतज्ञानके पर्याय पर्यायसमास आदि बीस भेदोंका भी कथन किया गया है। शेष ज्ञानोंका वर्णन तो तत्त्वार्थ सूत्रकी टोका सर्वार्थ सिद्धि और तत्त्वार्थ वार्तिकके अनुसार ही किया गया है । तीसरे अध्यायमें चारित्रका वर्णन है । अहिसा आदि व्रतोंके वर्णनमें ग्रन्थकारने अमितगतिके श्रावकाचारका अनुकरण किया जान पड़ता है । तुलनाके लिये एक श्लोक नीचे दिया जाता है । यो यस्य हरते वित्तं स तज्जीवितहन्नरः । बहिरङ्ग हि लोकानां जीवितं वित्तमुच्यते ॥५४॥-सि० सा० सं० । यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । आश्वासकर बाह्य जीवानां जीवितं वित्तम् ।।६१||-अमि० श्रा० ६ परि० । १. द्रुमपुष्पितपूर्वेयंदशभिस्त्वधिकारकः। सूचकं साधुवृत्तानां दशवकालिक मतं ॥१४१॥ -सि० सा० सं०, अ० २ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy