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३४८ : जेनसाहित्य का इतिहास स्वीकृत गाथाओंकी संख्या जयसेनकी तरह अधिक होने पर भी एकान्ततः जयसेनसे मेल नहीं खाती। प्रभाचन्द्रकृत द्रव्यसंग्रहवृत्ति' __ प्रभाचन्द्रने द्रव्यसंग्रह पर भी एक वृत्ति बनाई है और यह वृत्ति बिल्कुल उसी शैलीमें रची गई है जिस शैलीमें उक्त तीनों वृत्तियां रची गई है। अर्थात् प्रत्येक गाथाका खण्डान्वयके साथ संस्कृतमें शब्दार्थ मात्र दिया है और यत्र-तत्र आवश्यकताके अनुसार कुछ विशेष कथन भी किया गया है। इसमें भी अन्य ग्रन्थोंसे उद्धरण स्वल्प हैं । एक उद्धरण 'णिज्जिय सासो' आदि गाथा ५६ तथा ४७ की टीकामें है जो द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र तथा पाहुड़दोहामें पाया जाता है। गाथा १० की टीकामें समुद्धातका लक्षण गो० जीवकाण्डसे दिया गया है। इसके सिवाय दो श्लोक भी उद्धृत है जिनका स्थल ज्ञात नहीं हो सका। इस टीकामें विशेष बात यह है कि टीकाके मंगल श्लोककी भी टीकाकी गई है । ऐसा क्यों किया गया यह समझमें नहीं आया। ___ अव विचारणीय यह है कि ये चारों टीकाएं किस प्रभाचन्द्रके द्वारा रचित हैं, क्या न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेय कमल मार्तण्डके रचयिता प्रख्यात प्रभाचन्द्रने ही इन्हें रचा है अथवा किसी अन्य प्रभाचन्द्रकी ये कृतियाँ हैं। इस प्रश्नके उपस्थित होनेका कारण यह है कि इन तीनों टीकाओंमें प्रभाचन्द्रने अपने सम्बन्धमें कुछ भी नहीं लिखा। न्याय कुमुद चन्द्र वगैरहके कर्ता प्रभाचन्द्रने अपनी कृतियोंमें प्रायः अपनेको पमनन्दि सैद्धान्तिकका शिष्य बतलाया है। 'तत्त्वार्थ वृत्ति पद' जैसे टिप्पण अन्य तकके अन्तमें उन्होंने अपने गुरु पद्मनन्दिका निर्देश किया है। किन्तु इन तीनों टीकाओंमें ऐसा कोई निर्देश नहीं है ।
श्रुत मुनिने अपनी प्राकृत भाव त्रिभंगीकी प्रशस्तिमें कहा है कि बालचन्द्र मेरे अणुव्रत गुरु हैं, अभयचन्द्र सिद्धान्ती मेरे महाव्रत गुरु हैं, तथा अभय और प्रभाचन्द्र मेरे शास्त्रगुरु हैं। इसी प्रशस्तिके अन्तमें उन्होने प्रभाचन्द्र मुनिको सारत्रय' निपुण (प्रवचनसार, समयसार और पञ्चास्तिकायमें निपुण) शुद्धात्मरत, विरहित परभाव आदि कहा है। डॉ० उपाध्ये इन्हीं प्रभाचन्द्रको उक्त तीनों टीकाओंका कर्ता बतलाते हैं। और चूंकि श्रुत मुनिने अपने परमागमसारमें उसका
१. इस वृत्तिकी एक प्रति आमेरके शास्त्रभण्डारसे हमें देखने को मिल सकी। . २. 'वरसारत्तयणिउणो सुद्धप्परओ विरहिय परभावो।
भवियाणं पडिवोहणपरो पहाचंदणाम मुणी ।।' ३. प्रव० सा० की अंग्रेजी प्रस्ता०, पृ० १०८ ।