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________________ २४ : जेनसाहित्यका इतिहास लवण समुद्र के पश्चात् धातकी खण्ड द्वीप का वर्णन है । फिर कालोदधि समुद्र और पुष्करार्ध द्वीप का वर्णन है । पाँचवे तिर्यग्लोक नामक महाधिकार में सोलह अधिकार हैं- स्थावर लोक का प्रमाण, उसके बीच में तिर्यक् त्रसलोक द्वीप समुद्रों की संख्या, नाम सहित उनका विन्यास, नाना प्रकार का क्षेत्रफल, तिर्यञ्चों के भेद, संख्या, आयु, आयु बन्ध के कारण परिणाम, योनि, सुख, दुःख, गुणस्थान वगैरह, सम्यक्त्व ग्रहण के करण, गति - आगति, अल्प बहुत्व, और अवगाहना । 9 इस अधिकार को प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि मैं अपनी शक्ति से तिर्यग्लोक का लेश मात्र वर्णन करता हूँ । इससे ऐसा कि उसके सम्बन्ध में उन्हें विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के उपलब्ध नहीं थे । प्रकट होता है विशेष साधन देव, नारकी और मनुष्यों के सिवाय त्रे तिर्यञ्च स्थावर और त्रस के भेद से दो शेष सब प्राणी तिर्यञ्च कहलाते हैं । प्रकार के हैं । स्थावर पूरे लोक में हते हैं और स लोक के मध्य में स्थित त्रसनाली में रहते हैं । इसी से ग्रन्थकार ने समस्त लोकाकाश को स्थावर लोक कहा है और सुमेरु पर्वत के मूल एक लाख योजन ऊपर तक तथा एक राजु लम्बे चौड़े क्षेत्र को तिर्यञ्चों का लोक कहा है । क्योंकि तिर्यञ्च त्रस केवल मध्यलोक में ही रहते हैं । यों तो मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं । किन्तु न्थकार ने आदि और अन्त के सोलह सोलह द्वीपों और सोलह सोलह समुद्रों ही नाम बतलाये हैं । इनमें से केवल आठवें और तेरहवें द्वीप का विशेष र्णन किया है । इनमें से आठवें नन्दीश्वर द्वीप का जैन परम्परा में बहुत हत्त्व है क्योंकि वहाँ ५२ अकृत्रिम जिनालय हैं और प्रतिवर्ष कार्तिक, गुन और आसाढ़ के अन्तिम आठ दिनों में उनकी पूजा के उपलक्ष में न्दीश्वर पर्व मनाया जाता है । इस अधिकार में गद्य भाग अधिक है । गाथा संख्या तो केवल ३२१ है । कृत गद्य द्वारा द्वीप समुद्रों का क्षेत्रफल आदि बतलाया गया है । छठे व्यन्तर लोकमें सतरह अधिकारोंके द्वारा भूत पिशाच आदि व्यन्तर त्रों का कथन है । व्यन्तरोंका निवास क्षेत्र, उनके भेद, उनके विविध चिन्ह, नके कुल, नाम, दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र, उनकी आयु, आहार, उछ्वास, अवधि न, शक्ति, ऊंचाई, संख्या, जन्म, मरण, आयुके बन्धक भाव, सम्यक्त्व ग्रहणके रण, और गुणस्थानादिका कथन, इन अधिकारोंके द्वारा उनका कथन किया या है । इस अधिकारमें १०३ गाथाएँ हैं ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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