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________________ ३४६ : जैन साहित्यका इतिहास संभव नहीं था । तत्त्वार्थ सूत्र पर पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि, अकलंक देवके तत्त्वार्थ वार्तिक और विद्यानन्दिके तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक जैसी महान टीका ग्रन्थोंके होते हुए उस पर एक नई टीका लिखनेमें उक्त टीकाकारोंके द्वारा कही हुई बातोंको ही प्रकारान्तरसे कहना पड़ता, जैसा कि पीछेके अन्य टीकाकारोंको कहना पड़ा है । अत: प्रभाचन्द्रने सर्वार्थसिद्धिके अप्रकटित पदोंको स्पष्ट करके उचित किया है । वास्तव में सर्वार्थसिद्धिके अनेक पद बहुत गूढ़ हैं और उनके स्पष्टीकरणके लिये इस प्रकारके एक टिप्पण ग्रन्थकी आवश्यकता थी । अपभ्रंश भाषाके महाकवि पुष्पदन्तकृत महापुराण पर भी उन्होंने इस प्रकारका एक टिप्पण ग्रन्थ रचा है जो उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा तथा गुणग्राहकताका परिचायक है | फिर तत्त्वार्थ वृत्तिके अप्रकाशित पदोंको स्पष्ट करने वाला यह छोटा सा ग्रन्थ मात्र टिप्पण ग्रन्थ ही नहीं है, किन्तु उसके द्वारा अनेक सैद्धान्तिक गुत्थियों पर विद्वत्तापूर्ण प्रकाश भी डाला गया है और उससे यह प्रकट होता है कि पद्मनन्दिके शिष्य दार्शनिक प्रभाचन्द्र जैन सिद्धान्त के भी पूर्ण मर्मज्ञ थे । इसीसे उनका यह ग्रन्थ भी अनेक आगमिक ग्रन्थोंके उद्धरणोंसे भरा हुआ है । जिनकी संख्या ५० से ऊपर है और जिनमें कसाय पाहुड़ जैसे सिद्धान्त ग्रन्थ तककी गाथा वर्तमान है । कई उद्धृत गाथाएँ ऐसी भी हैं जो उपलब्ध ग्रन्थोंमें नहीं पाई जाती । सर्वार्थसिद्धिमें सबसे विस्तृत व्याख्या सत्संख्या' आदि सूत्रकी है, उसमें षट्खण्डागमके अन्तर्गत अनुयोगद्वारोंके आधार पर सैद्धान्तिक विवेचन है । प्रभाचन्द्रके इस तत्त्वार्थवृत्ति पदके भी फुलिस्केप आकारके ३३ पृष्ठोंमेंसे एक चतुर्थांश पृष्ठ उक्त सूत्रकी टीकासे सम्बद्ध है । और उनमें अनेक महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक चर्चाएं भी है। प्रत्येक अध्यायके टिप्पण जुदे-जुदे हैं और तत्त्वार्थसूत्र के सम्बद्ध सूत्रका निर्देश करके टिप्पण दिया गया है जिससे उसे खोजने में कठिनाई नहीं होती । प्रत्येक अध्यायके टिप्पणकी समाप्तिपर तत्त्वार्थसूत्रकी तरह ही अध्यायकी समाप्तिका सूचक सन्धिवाक्य दिया हुआ है यथा 'इति प्रथमोध्यायः समाप्तः ।' इस टिप्पणमें आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके गोम्मटसार ग्रन्थसे अनेक गाथाएं उद्धृत है । तथा अमितगतिके संस्कृत पंञ्चसंग्रहका भी एक श्लोक उद्धृत है । अमितगतिने अपना पंचसंग्रह वि० सं० २०७३ में समाप्त किया है । अतः उसके पश्चात् ही प्रभाचन्द्रने यह टिप्पण रचा है । आचार्य नेमिचन्द्र और अमितगति दोनों विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके विद्वान् थे और प्रभाचन्द्र अमितगतिके लघु समयकालीन थे ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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