________________
तत्त्वार्थविययक टीका - साहित्य : ३४५
के अन्तमें पाये जाने वाले प्रशस्ति वाक्योंमें इस बातका स्पष्ट निर्देश है । तथा जयसिंह देव और भोजदेवके राज्यका भी निर्देश हैं । परमार राजा भोजदेवका राज्यकाल वि० सं० १०७६ से वि० १११२ तक माना जाता है क्योंकि भोजदेवके उतराधिकारी जयसिंहका वि० सं० १११२ का दानपत्र मिला है । इन प्रभाचन्द्रने अनेक छोटे-बड़े ग्रन्थोंकी रचना की है। उनमेंसे एक 'तत्त्वार्थ वृत्ति पद' नामका छोटा सा किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी है । इसमें पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थ वृत्ति के अप्रकाशित पदोंको व्यक्त किया गया है । यह बात इसके आद्य मंगल श्लोकसे भी प्रकट होती है । यथा
'सिद्धं जिनेन्द्र मलमप्रतिमप्रबोधं त्रैलोक्य वंद्यमभिवंद्य गतप्रबन्धम् । दुर्वारदुर्जयतमः प्रति भेदनाकं तत्त्वार्थवृत्तिपदमप्रकटं प्रवक्ष्ये ॥ '
ग्रन्थके अन्तमें प्रशस्ति भी है, जो इस प्रकार हैज्ञानस्वच्छजलस्सुरत्ननिचयश्चारित्रवीचिचयः सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रजलधिः श्रीपद्म नन्दिप्रभुः । तच्छिष्यान्निखिलप्रबोधजनकं ( नं) तत्त्वार्थवृत्तेः पदं सुव्यक्तं परमागमार्थविषयं ज्ञातं ( जातं) प्रभाचन्द्रतः ॥ श्री पद्म नन्दि संद्धान्तशिष्योऽनेक गुणालयः । प्रभाचन्द्रश्चिरं
जीयात् पादपूज्यपदे रतः ॥
मुनीन्दुर्नन्दितादिदन्निजमानन्दमन्दिरम् । सुधाधारोद्गिरन्मूर्तिः काममामोदयज्जनम् ।।
इस प्रशस्तिका प्रथम श्लोक न्यायकुमुद चन्द्र प्रशस्तिके चतुर्थ श्लोकसे मिलता हुआ है और दूसरा श्लोक प्रमेयकमल मार्तण्डकी प्रशस्तिके चतुर्थ श्लोक जैसा ही है, केवल अन्तिम चरणमें अन्तर है । चूँकि प्रमेयकमल माणिक्यनन्दिके सूत्र ग्रन्थकी व्याख्या है । अतः उसमें चतुर्थ श्लोकका अन्तिम चरण 'रत्ननन्दि पदेरतः' है और तत्त्वार्थवृत्ति पूज्यपादकी रचना है । अतः उसके दूसरे श्लोकका अन्तिम चरण पादपूज्यपदे रतः ' है ।
इस प्रशस्तिसे यह सिद्ध है कि 'तत्त्वार्थ वृत्तिपद' उन्हीं प्रभाचन्द्रका है । जिन्होंने उक्त दो महान ग्रन्थोंकी रचना की थी। ऐसे महान् दार्शनिक ग्रन्थोंके रचयिताके द्वारा तत्त्वार्थ सूत्रपर स्वकीय वृत्ति न लिखकर सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थ वृत्ति के अप्रकटित पदोंको स्पष्ट करनेकी बातसे कुछ लोगोंको आश्चर्य हो सकता है । किन्तु प्रभाचन्द्र जैसे मनीषी ग्रन्थकारके द्वारा पिष्टपेषणका कार्य