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________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३३७ भावनाप्रियस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य भाण्डागाराधनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्तं श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवः पूर्व षड्विंशति गाथाभिर्लघ द्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद् विशेषतत्त्वपरिज्ञानाथं विरचितस्य वृहद्व्यसंग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारभ्यते ।' अर्थात्-'मालव देशमें धारानगरीका स्वामी कलिकाल सर्वज्ञ राजा भोजदेव था। उससे सम्बद्ध मण्डलेश्वर श्रीपालके आश्रम नामक नगरमें श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थङ्करके चैत्यालयमें भाण्डागार आदि अनेक नियोगोंके अधिकारी सोमनामक राजश्रेष्ठीके लिये श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवने पहले २६ गाथाओंके द्वारा लघुद्र व्यसंग्रह नामका ग्रन्थ रचा, पीछे विशेषतत्त्वोंके ज्ञानके लिये वृहद्रव्यसंग्रह नामक गन्थ रचा। उसकी वृत्तिको मैं प्रारम्भ करता हूँ।' अतः वृत्तिकारके अनुसार इस ग्रन्थका नाम वृहद्रव्यसंग्रह है । द्रव्य संग्रहके जो संस्करण संस्कृत टीकाके साथ प्रकाशित हुए हैं उनपर उसका नाम वृहद् द्रव्यसंग्रह ही मुद्रित किया गया है। किन्तु मूल ग्रन्थके संस्करणों पर उसका नाम द्रव्यसंग्रह ही दिया गया है। यह ग्रन्थ तीन अधिकारोंमें विभक्त है। पहले अधिकारमें द्रव्योंका वर्णन है और २७ गाथाएं हैं। अतः टीकाकारके उक्त कथन परसे पहले ऐसा समझा गया कि ग्रन्थकारने पहले इतना ही ग्रन्थ बनाया होगा। पीछे उसने उसे बढ़ा दिया होगा। किन्तु श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तारको श्री महावीर जी के शास्त्र भन्डारसे उक्त लघु द्रव्यसंग्रह प्राप्त हो गया और उन्होंने उसे अनेकान्त वर्ष १२ की किरण पांच प्रकाशित कर दिया। उससे ज्ञात हुआ कि उक्त द्रव्यसंग्रहसे जिसे टीकाकारने वृहद्रव्यसंग्रह नाम दिया है, लघुद्रव्यसंग्रह जुदा ही है। उसकी अन्तिम गाथामें, जिसकी संख्या २५ है, ग्रन्थकारने अपना नाम गणि नेमिचन्द्र दिया है और उसे सोमके बहानेसे रचा भी बतलाया है। किन्तु उसका नाम द्रव्यसंग्रह नहीं दिया । वह अन्तिम गाथा इस प्रकार है सोमच्छलेण रइया पयालक्खणकराउ गाहाओ । भव्वुवयारणिमित्तं गणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥२५॥ अर्थात्-गणि श्री नेमिचन्द्रने सोमके व्याजसे भव्य जीवोंके उपकारके लिये पदार्थोका लक्षण करनेवाली गाथाओंको रचा । इन गाथाओंकी द्रव्यसंग्रहकी गाथाओंके साथ तुलना करनेसे ऐसा लगता है कि यदि दोनोंके कर्ता एक ही हैं तो उन्होंने पहले तो सोमके लिये उक्त लक्षण परक कुछ गाथाएँ रची। पीछे सुव्यवस्थित रूपसे एक ग्रन्थ रचा और उसको द्रव्यसंग्रह नाम दिया । टीकाकार ब्रह्मसूरिने इस द्रव्यसंग्रह नामके ऊपरसे पदार्थ २२
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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