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________________ ३०८ : जैनसाहित्यका इतिहास ष्ठायी हैं उन्हें अज्ञानी क्यों कहा गया है । इसके उत्तरमें 'वेदविहित हिंसा-हिंसा नहीं है । इस उक्तिका खण्डन मनुस्मृति (५।३९), मैत्राण्युपनिषद् (६॥३६) तथा ऋक्संहिता (१०१९०) से पूर्वपक्षमें प्रमाण उपस्थित करके किया गया है। इस तरह अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिकमें उक्त दार्शनिक समीक्षाएं की है। कुछ आगमिक चर्चाएं भी महत्त्वपूर्ण हैं जो इस प्रकार है। १. सूत्र १-७ के अन्तर्गत जीव अजीव आदि सातों तत्त्वोंका विवेचन निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानपूर्वक किया है । २. सूत्र १-२० के अन्तर्गत द्वादशांगका विषयपरिचय दिया है। यह विषय परिचय नन्दीसूत्र और समवायांगमें दिये गये विषय परिचयसे प्रायः भिन्न है। अतः इसका आधार कोई अन्य ग्रन्थ होना चाहिए जो वर्तमानमें उपलब्ध नहीं है। ३. सूत्र १-२१, २२ में अवधिज्ञानके द्रव्य, क्षेत्रादिका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है। ४. सूत्र १-२३ में मनः पर्ययज्ञानका आशय स्पष्ट करते हुए महाबन्धके वाक्य 'आगमे हयुक्त' करके दिये गये हैं। ५. सूत्र १-३३ में नयोंका, उनमें भी ऋजुसूत्रनयका विवेचन अपूर्व है । ६. सूत्र २-७ में सान्निपातिक भावोंका वर्णन है । उसमें प्रथम यह शंका की है कि आगममें सान्निपातिक नामक भाव भी कहा है उसे भी यहाँ कहना चाहिए। उसके उत्तरमें प्रथम तो यह कहा गया है कि सान्निपातिक नामका कोई छठा भाव नहीं है। फिर कहा गया है कि यदि वह है भी तो मिश्र शब्दसे उसका ग्रहण हो जाता है । श्वेताम्बर आगममें सान्निपातिक नामका भाव भी बतलाया है । किन्तु दिगम्बर परम्पराके अन्य किसी ग्रन्थमें इसका उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु अकलंकदेवने इस सम्बन्ध एक गाथा भी उद्धृत की है जिसमें सानिपातिक भावोंके भेद बतलाये हैं। अतः अकलंकके पूर्ववर्ती किसी ग्रन्थमें उनका कथन अवश्य होना चाहिए। ७. सूत्र २-९४ में शरीरोंका कथन बहुत विस्तारसे किया है। उसमें षट्बण्डागमके प्रथम खण्ड जीवस्थानका उल्लेख करते हुए यह शंका उठाई है कि जीवस्थानमें वैक्रियिककाय योग और वैक्रियिक मिश्रकाय योग देव-नारकियोंके बतलाया है किन्तु यहाँ आपने तिर्यञ्चों और मनुष्योंके भी बतलाया है । यह बात तो बागमविरुद्ध है। इसका उत्तर देते हुए अकलंकदेवने व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डकका प्रमाण अपने कथनके समर्थनमें दिया है। और फिर इन दोनों कथनोंका समन्वय भी किया है । सूत्र ४-२६ में भी एक शंका समाधान इसी प्रकारका है । वहाँ भी 'वार्षमें अन्तर विधानमें ऐसा कहा है' लिखकर उसका निर्देश शङ्का
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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