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________________ १८ : जेनसाहित्यका इतिहास मिलते । किन्तु जो कथन त्रि० प्र० के अनुसार मिलते हैं और त्रि० प्र० में प्रतिपादित लोकविभागके मतानुसार नहीं मिलते, संक्षेपी करणकी बात उनके विषयमें लागू नहीं हो सकती। किसी ग्रन्थकी भाषाको परिवर्तित करके उस ग्रन्थका सक्षेपीकरण करनेवाला मूल ग्रन्थकी मान्यताओंको छोड़कर उसके स्थान में दूसरेके मतोंका निर्देश करे तो इसे संक्षेपीकरणका फल नहीं कहा जा सकता। फिर सं० लो० वि० के आद्य श्लोकके पर्वार्धमें मंगल करके जो उत्तरार्धमें 'व्याख्यास्यामि समासेन' कहा है वह लोक विभागके लिये नहीं कहा किन्तु लोकतत्त्व' के लिये कहा है । 'अनेकधा लोक तत्त्वको मैं संक्षेपसे व्याख्यान करूंगा।' शायद यह आद्य श्लोक भी सर्वनन्दि रचित लोकविभागकी आद्य गाथाका ही संस्कृत रूपान्तर हो और सर्वनन्दिने अपने लोक विभागमें ही अनेकधा लोकतत्त्वका संक्षेपसे कथन करनेकी प्रतिज्ञा की हो। प्रेमीजीने ठीक ही लिखा है कि 'जब तक सर्वनन्दिका मूलग्रंथ नहीं मिलता तब तक इस तरहके विकल्प उठते ही रहेंगे।' और तब तक यह भी निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि त्रि० प्र० में उल्लिखित लोक विभाग ही सर्वनन्दि रचित लोकविभाग है। अस्तु, मूलाचार एक उल्लेख मूलाचारका मिलता है जो इस प्रकार है पलिदोवमाणि पंचय सत्तारस पंचवीस पणतीसं । चउसु जुगलेसु आऊ णादव्वा इंददेवीणं ॥५३१॥ आरणदुगपरियतं वड्ढंते पंचपल्लाई। मूलाआरे इरिया एवं णिउणं णिस्वेति ॥ ५३२ ॥-अ० ८ । 'चार युगलोंमें इन्द्रदेवियोंकी आयु क्रमसे पांच, सतरह, पच्चीस, पैंतीस पल्य माण जानना चाहिये। आगे आरण युगल तक पांच पल्यकी वृद्धि होती गई । ऐसा मूलाचारमें आचार्य निरूपण करते हैं।' मूलाचार नामक ग्रन्थ मुद्रित हो चुका है वट्टकेराचार्यका कहा जाता है । सके पर्याप्ति अधिकारमें गा० ८० में इन्द्रदेवियोंकी आयु बराबर उक्त प्रकार 'कही है। इस प्रकार ति० ५० में उक्त ग्रन्थोंका नाम निर्देश मिलता है। और उससे ह स्पष्ट है कि ग्रंथकारके सामने उक्त ग्रंथ वर्तमान थे और उन्होंने अपने न्थ निर्माणमें उनसे साहाय्य लिया था। उनके सिवाय भी ऐसे अनेक ग्रंथ जिनकी गाथाएं ज्यों की त्यों अथवा पाठभेदसे ति० प० में पाई जाती हैं। नकी चर्चा आगे की जायेगी।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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