________________
भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : १७
१. त्रि० प्र० १-२८१ में बतलाया है कि लोकविभागमें लोकके ऊपर, वायुका बाहुल्य १॥ कोस आदि कहा है। किन्तु संस्कृत लोक विभागमें लोकके अग्रभागमें तीनों वातवलयोंका बाहुल्य क्रमसे दो कोस, एक कोस और चार सौ पच्चीस धनुष कम एक कोस कहा है। यही बाहुल्य त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें भी बतलाया-यथा
कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि ।
ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीसजुदा ॥२७१॥-अ० १ इसीका संस्कृत रूप संस्कृत लोक विभागमें है
लोकाग्रे क्रोशयुग्मं तु गव्यूतियूनगोरुतं ।
न्यूनप्रमाणं धनुषां पंचविंशचतुःशतम् ॥ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें जो लोकविभागका मत दिया है वह मत यदि उक्त लोकविभागमें था तो संस्कृत रूपान्तरकारने उसे छोड़कर त्रिलोक प्रज्ञप्तिका मत क्यों दिया ? यदि उसने भाषा परिवर्तन करते हुए मूल लोकविभागके मतोंकी उपेक्षा की है तो उसका 'भाषायाः परिवर्तनेन' लिखना उचित प्रतीत नहीं होता । अतः यही अधिक संभव प्रतीत होता है कि उक्त मत उस लोकविभागमें नहीं था, अतः रूपान्तरकारने त्रिलोक प्रज्ञप्तिसे उसकी पूर्ति कर ली।
इसी तरह त्रि० प्र०, अ० ४, गा० २४९१ में कहा है कि 'लोकविभागाचार्य कुमानुषोंसे युक्त द्वीपोंकी स्थिति अन्य प्रकारमे कहते हैं। और आगे उस स्थितिका कथन भी किया है किन्तु संस्कृत लोक विभागमें अन्तर्वीपोंका जो वर्णन है वह त्रि० प्र० से मिलता है। इसीसे उसके समर्थनमें संस्कृत लोक विभागके रचयिताने त्रि० प्र० की गाथाएं भी उद्धृत की हैं।
इन बातोंसे त्रिलोक प्रज्ञप्तिमें उल्लिखित लोकविभागके और सर्वनन्दि रचित लोकविभाग के एक होनेमें सन्देह होता है ।
श्री प्रेमीजीने लिखा है कि तिलोयपण्णत्तिमें लोकविभागके मतोंका जिस स्वरूपमें अनेक जगह उल्लेख किया गया है और नियमसारकी टीकामें जिसे लोक विभागाभिधान परमागम' कहा है वह अवश्य ही काफी विस्तृत रहा होगा और संस्कृतमें उसका यह संक्षेप किया गया है-'व्याख्यास्यामि समासेन' । शायद इसी लिए इसमें वे बहुत-सी बातें नहीं मिलती जिनके नियमसार, ति० प० आदि ग्रन्थोंमें लोकविभागमें कहे जानेके उल्लेख मिलते हैं।' प्रेमीजीकी उक्त संभावना उन कथनोंके विषयमें लागू हो सकती है जो सं० लो० वि० में नहीं
१. जै० सा० इ०, पृ० ५।
२