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________________ २ : जैनसाहित्यका इतिहास अंग दृष्टिवाद था। उस दृष्टिवादके पांच भेदोंमेंसे प्रथम भेदका नाम परिकर्म था । उस परिकर्मके भी पांच भेद थे-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । यह सब ग्रन्थ खगोल और भूगोल विषयक जैन मान्यताओंसे सम्बद्ध थे। खेद है कि ये सब लुप्त हो गये। फिर भी उनके आधार पर वने जैन ग्रन्थ उनके अभावकी आंशिकपूर्ति करते हैं। इस प्रकरणमें उसी लोकानुयोग विषयक साहित्यके इतिहास पर प्रकाश डाला जायेगा। जहाँ तक हम जानते हैं वैदिक धर्म और बौद्ध धर्मके साहित्यमें भी भूगोल और खगोलका तथा उससे सम्बद्ध लोकविषयक अन्य वातोंका कथन है। किन्तु उनमें जैन लोकानुयोग विषयक स्वतंत्र ग्रन्थोंकी तरहका स्वतंत्र साहित्य हमारे देखने में नहीं आया। किन्तु जैनधर्ममें करणानुयोगके अन्तर्गत कर्म और लोकविषयक साहित्यका स्थान धार्मिक दृष्टिसे भी विशेष महत्वपूर्ण है। धर्मध्यानके चार भेदोंमेंसे दो भेद विपाकविचय और संस्थानविचय क्रमसे कर्मविषयक और लोकविषयक चिन्तनसे सम्बद्ध हैं। अतः धर्मध्यानमें संलग्न श्रावक और साधुके लिए कर्म और लोकविषयक शास्त्रोंका पठन-पाठन और चिन्तन हितावह है। इस कारणसे भी कर्मविषयक और लोकानुयोग विषयक स्वतंत्र साहित्य जैसा जैन परम्परामें उपलब्ध हैं वैसा अन्यत्र नहीं है। उसीका सतत् चिन्तन मनन करते रहनेसे जैनाचार्योने उसे खूब पल्लवित और पुष्पित किया है और गणितके आधार पर उसे व्यवस्थित किया है। मोटे तौर पर खगोल और भूगोल विषयक भारतीय विद्वानोंकी प्राचीन मान्यतायें कुछ अंशोंमें समान हैं । यद्यपि आजके विज्ञानकी मान्यताओंसे उनका मेल नहीं खाता और आजके विज्ञानके विद्यार्थियोंको वे एकदम अटपटी और असंगत प्रतीत होती हैं, तथापि उनके पीछे प्राचीन भारतीय चिन्तन और अवलोकनका महत्वपूर्ण हाथ है अतः उन्हें एकदम उपेक्षणीय कहकर दृष्टिसे ओझल नहीं किया जा सकता। अतः लोकानुयोग विषयक जनसाहित्यका परिचयादि देनेसे पूर्व प्रकृत विषयका सामान्य परिचय करा देना उचित होगा। साथ ही टिप्पणमें वैदिक और बौद्धाभिमत खगोल-भूगोलका भी आवश्यक अंश दिया जाता है इससे तुलना करनेमें सरलता होगी। १. जैनधर्ममें आकाशके मध्यमें लोक माना है और इस तरहसे एक अखण्ड आकाशको दो भागोंमें विभाजित कर दिया है। उनका नाम है-लोकाकाश या लोक और अलोकाकाश या अलोक । जितने आकाशमें जीव पुद्गल आदि सब द्रव्योंका आवास है वह लोक है शेष अलोक है। लोकके तीन भेद है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। एक मनुष्य दोनों पैर फैलाकर और
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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