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जैन साहित्यका इतिहास
द्वितीय भाग
प्रथम अध्याय भूगोल-खगोल विषयक साहित्य जैन साहित्यमें भूगोल-खगोल विषयक साहित्यका पारिभाषिक नाम 'लोकानुयोग-साहित्य' है । इस अनुयोग-साहित्यके अंतर्गत द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियाँ, क्षेत्र एवं नगरादिके साथ सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदिका भी वर्णन आता. है। यह ऐसा लोक-साहित्य है, जिसमें आधुनिक ज्योतिष, निमित्त, ग्रह-गणित
और भूगोलका समावेश हो जाता है। __भारतमें प्राचीन कालसे ही वैदिक और श्रमण इन दोनोंने जीवनके विविध सम्बन्धों और कारण कलापोंका निरूपण करते हुए भूगोल और खगोल सम्बन्धी समस्याओं पर भी विचार किया है। ऋग्वेदमें भूगोल और खगोल सम्बन्धी जैसी चर्चाएं उपलब्ध होती हैं वैसी ही इस लोकानुयोग-साहित्यमें भी । श्रमणोंकी यह विशेषता रही है कि वे प्रत्येक मूल मुद्देका तर्क पूर्वक विचार उपस्थित करते हैं और प्रत्येक कारणसूत्रके साथ उनकी 'वासना' भी अंकित करते जाते हैं, जिससे उनका पूर्वाग्रह व्यक्त नहीं होता।
जिस कार्यको सातवीं-आठवीं शताब्दीके वैदिक विचारकोंने 'वासना' के विश्लेषणके रूपमें उपस्थित किया है उस कार्यको लोकानुयोग-साहित्यके रचयिताओंने ईस्वी सन्की आरम्भिक शताब्दियोंमें ही सम्पन्न किया था।
श्रमणोंकी भूगोल-खगोल सम्बन्धी अनेक मान्यताएं वैदिक पुराणों और तद्विषयक अन्य साहित्यसे भिन्न हैं । हम यहाँ ग्रन्थक्रमसे विषयका निरूपण करते हुए उसका सांगोपांग इतिवृत्त प्रस्तुत करते है ।
पहले लिख आये हैं कि करणानुयोगके अन्तर्गत जीव और कर्मविषयक साहित्य तथा लोकानुयोग विषयक साहित्य गर्भित हैं ।
लोकानुयोगका मतलब लोक रचना सम्बन्धी साहित्य से है जिससे आजके शब्दोंमें खगोल और भूगोल लिया जाता है।
भगवान् महावीरकी दिव्यवाणीको सुनकर उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर ने जिन बारह अंगोंकी रचना की थी उनमें सबसे महत्वपूर्ण और विशाल अन्तिम