________________
छक्खडागम ७७
झलक मिलती है। और जब श्री रामचन्द्र' कहते है कि मेरे कोई चाह नही है और न मेरा मन विपयोमे लगता है। मैं तो 'जिन' की तरह अपनी आत्मामे शान्ति प्राप्त करना चाहता हूँ, तब तो विचारोको भूमिकाकी उक्त झलकका रहस्य स्पष्ट हो जाता है।
योगकी परम्परा बहुत प्राचीन परम्परा है 'मोहेजोदडो' से प्राप्त योगीकी मूर्ति उसका प्रमाण है। योगका लक्ष्य आध्यात्मिक विकास था, उसीको भूमिका अथवा गुणस्थानोके द्वारा चित्रित करनेका प्रयास किया गया है ।
जैन परम्परामें गुणस्थानो और मार्गणाओके द्वारा जीवके कथनकी परम्परा बहुत प्राचीन है क्योकि भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट पूर्वोमें उनका सागोपाग कथन था और जैन परम्पराके विभिन्न सम्प्रदायगत साहित्यमें भी उस कथनमें एकरूपता है । अत इसे भगवान महावीरकी देन कहना अनुचित न होगा।
__ मार्गणाओमें लेश्यामार्गणा अपना वैशिष्ट्य रखती है। उनके छै भेद किये गये है और ससारके जीवोको उनके भावोके अनुसार छै लेश्याओमें विभाजित किया है।
दीघनिकायकी टीकामे बुद्धघोपने लिखा है-गोशालकने शिकारी वगैरहको कृष्णमें, बौद्ध भिक्षुओको नीलमें, निम्रन्थोको लालमें, अचेलकोके अनुयायियोको पीतमें और आजीविकोको शुक्लमें विभाजित किया था। अगुत्तरनिकायमें इसे पूरणकाश्यपका मत कहा है। इस परसे डॉ० हानलेका अनुमान था कि छै रगोमे मनुष्योको विभाजित करनेका विचार बुद्धके छहो विरोधी तीर्थङ्करोमें साधारण रूपसे प्रचलित था। डॉ० हानलेका उक्त अनुमान ठीक हो सकता है, किन्तु इस विचारका उद्गम जैन विचार-क्षत्रमे होना अधिक सभाव्य जान पडता है क्योकि रगोके इस विचारके मूल उपादान योग और कपायके साथ लेश्यामोका वर्णन जैन शास्त्रोमें मिलता है।
२ द्रव्यप्रमाणानुगम-जीवट्ठाणके इस दूसरे अनुयोगद्वारसे भूतबलिकी रचना का प्रारम्भ होता है । इस भागमें बतलाया है कि विभिन्न गुणस्थानोमें सामान्यसे तथा विभिन्न मार्गणाओकी अपेक्षा जीवोकी सख्या कितनी है।
आजका पाठक इस वातको बडे कौतूहलके साथ पढेगा कि जैन सिद्धान्तमें ससारके जीवोकी सख्या तकका विवेचन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारसे किया है। सबसे प्रथम तो यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि इस विवेचनका आधार क्या १. 'नाह रामो न मे वान्छा विषयेपु न मे मन ।
शान्तिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।।' ____२. इ० इ० रि०, जि० १, पृ० २६२ ।