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७६ - जैनसाहित्यका इतिहास के अस्तित्वका प्रतिपादन किया है। इसीसे इसका नाम सत्प्रस्पणा है । यही कथन आगेके काथनका प्रवेशद्वार है । उरामे प्रवेश हुए विना आगेके खण्डोमे गति होना कठिन है । अत पहले खण्ड 'जीवट्ठाण' के आदिमें ही उसे स्थान दिया है।
गुणस्थानो और मार्गणारयानोके द्वारा इस प्रकाररो जीवकी सत्ताका विवेचन जैन परम्पराके सिवाय न बौद्ध परम्पगमे पाया जाता है मीर न वैदिक परम्परामें । उपनिषदोगें आत्मतत्वका प्रतिपादन अवश्य है किन्तु मोक्षके सोपानभूत ऐसी किन्ही भूमिकाओका वर्णन उनमें नहीं है, जिनकी तुलना गुणस्थानोसे की जा सके । और न जीवकी विविध दशाओ और गुणोकी परिणतियोको लेकर ऐसा ही कोई विचार उनमें मिलता है जिसकी तुलना जैन सिद्धान्तके मार्गणास्थानोसे की जा सके।
हाँ, योगवाशिष्ठ और पातञ्जल योगदर्शनमे आत्माकी भूमिकाओका विचार अवश्य मिलता है । योगवाशिष्ठमे' सात भूमिकाए ज्ञानकी और सात भूमिकाएँ अज्ञानकी इस तरह चौदह भूमिकाएं वतलाई है, जो जैन परम्पराके उक्त १४ गुणस्थानोका स्मरण कराती है । उनमें जो सात ज्ञानभूमिकाएँ है वे इस दृष्टिसे द्रष्टव्य है-पहली भूमिकाका नाम शुभेच्छा है। वैराग्यपूर्व इच्छाको शुभेच्छा कहते है । शास्त्र और सज्जनोके सम्पर्कसे तथा वराग्यके अभ्यासपूर्वक जो सदाचार प्रवृति होती है उसे दूसरी विचारणा भूमिका कहते है । विचारणा और शुभेच्छासे जो इन्द्रियोके विषयोमें अनासक्ति होती है उसे तीसरी तनुमानसा भूमिका कहते है । तीसरी भूमिकाके अभ्याससे शुद्ध आत्मामें चित्तको स्थितिको चौथी सत्वापत्ति भूमिका कहते है। ___ सात ज्ञानभूमिकाओका उक्त वर्णन चतुर्थ आदि गुणस्थानोमे स्थित आत्माके लिए लागू होता है । योगवाशिष्ठके कुछ अन्य वर्णनोमे भी जैन विचारोकी
१ अशनभू सप्तपदा शभू सप्तपदैव हि । पदान्तराण्यसख्यानि भवन्त्यन्यान्यथैतयो ॥२॥
-उत्प० प्र०, स० ११७ । २ स्थित किं मूढ एवास्मि प्रक्षोऽह शास्त्रसज्जनै,।
वैराग्यपूर्वामिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यतै बुधै ॥ ८ ॥ ३ 'शास्त्रसज्जनसम्पर्कविराग्याभ्यासपूर्वकम् ।।
सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा ॥ ९ ॥ ४ 'विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेष्वसक्तता ।
यत्र सा तनुताभावात् प्रोच्यते तनुमानसा ।। १० ।। ५ 'भूमिकात्रितयाभ्यासात चित्तथे विरतवंशात् ।
सत्यात्मनि स्थिति शुद्ध सत्वापत्तिरुदाहृता ॥ ११ ॥ उ० प्र० स० ११८ ।