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'७२ : जैनसाहित्यका इतिहास
यहाँ जो 'वादर' शब्द है वह उग वातका सूनक है कि पूर्वके राय गुणस्थानोमे स्थूल कापाय रहती है।
१० 'सुहुगराापराऽयपविट्ठशुद्धिराजदेसु अस्यि उवरामा सवा ॥ १८ ॥
दसवें गुणरथानका नाम गूद ममागरायगयत है। जिन रायमियोके सूक्ष्म कपाय रहती है उन्हे सूदमगारायरायत कहते है । वे उपशमक भी होते है और क्षपक भी।
११. 'उनरातकगायवीयरायछनुमत्या ॥ १९ ॥'
जिनकी कपाय उपशान्त है उन्हें उपशान्तकपाय कहते है । और जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हें वीतराग कहते है । तया अल्पज्ञानियोको छास्थ कहते है। उपशान्तकपाय वीतरागी छमस्थोको उपशान्तकपायवीतरागछास्थ कहते है । यह ग्याहरहा गुणरथान है । कहा भी है
निर्मलीसे युक्त जलकी तरह अथवा शरदऋतुमे होने वाले सरोवरके निर्मल जलकी तरह, सम्पूर्ण मोहनीयकर्मके उपशमसे होनेवाले निर्मल परिणामवाले जीवको उपशान्तकपाय कहते है।'
१२ ‘खीणकगायवीयरायदुभत्या ॥ २० ॥
जिनकी कपाय क्षीण हो गई है उन्हे क्षीण कपाय कहते हैं। जो क्षीण कपाय होते हुए वीतराग होते है किन्तु छदारथ होते है उन्हें क्षीणकपायवीतरागमस्थ कहते है । यहाँ जो 'छद्मरथ' शब्द है वह पूर्वके सब गुणस्थानवर्ती जीवोको छमस्थ सूचन करता है। यह वारहवा गुणस्थान है । कहा भी है
"जिराने सम्पूर्ण मोहनीय कर्मको नष्ट कर दिया है अतएव जिनका चित्त स्फटिक मणिके निर्मल पानमे रखसे हुए जलके समान निर्मल है ऐसे निर्ग्रन्थ साधुको क्षीणकपायगुणस्थानवाला कहा है।'
१३ 'सजोगकेवली ॥ २१ ॥'
मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको योग कहते है । और योगसहितको सयोग कहते है । तथा इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदिकी सहायताके विना होने वाले ज्ञानको केवलज्ञान कहते है और जिसके केवलज्ञान होता है उसे केवली कहते है। तथा योगसहित केवलीको सयोगकेवली कहते है । यह तेरहवा गुणस्थान है। उसके चारो घातियाकर्म नष्ट हो जाते है। और शेप चार कर्म भी शक्तिहीन हो जाते है। कहा भी है१. पटख० पु. १, पृ० १८७ । २. वही, पृ० १८८। ३. वही, पृ० १८९ । ४. वही, पृ० १९०।