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६६ : जैनसाहित्यका इतिहास
उत्तरप्रकृतिबध
एकैकोत्तर
____ अन्वोगाढ
-205
सर्वबन्ध
नोसर्व१ समुत्कीर्तना
जघन्यअनुत्कृष्टसादि
ध्रुवअनादिअजघन्य
अध्रुववधकालबन्धान्तर
क्षेत्रभगविचयपरिमाणभागाभागस्पर्शन-- काल
अन्तर-१२-बन्धस्वामित्ववि०
भाव
अल्पवहत्व| १५ वधसन्निकर्प
१० ११ १३ १४ १६ १७ २२
2221
-२३
२४
बन्धस्वामित्ववि० प्रकृति स्थिति दण्डक १ दण्डक २ दण्डक ३ खण्ड ३ भावप्ररूपणा जीवट्ठाणकी पाँच चुलिका
(जीवठ्ठाणका ७वा अधिकार)
अव्वोगाढ
। प्रकृतिस्थान
भुजगार
जापा
१ २ ३ | ४ | ५ ६ ७ ८ सत् सख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अतर भाव अल्पबहुत्व
J | । ।
जीवट्ठाणके छह अनुयोगद्वार बंधकके ग्यारह अनुयोगद्वारोमें पांचवें द्रव्यप्रमाणानुगमसे जीवट्ठाणकी संख्या रचना-शैली ____ प्रस्तुत छक्खडागमके अन्तर्गत पाँचो खण्ड प्राकृत-भापाके प्रसादगुणयुक्त सूत्रोमें रचे गये है । पाँचो खण्डोके सूत्रोकी सख्या साढे छ हजारसे अधिक है । चौथे और पांचवें खण्डमें कुछ गाथासूत्र भी है ।
स्त्र अपने आपमें पूर्ण और बहुत स्पष्ट है । प्राकृत-भापाका साधारण जानकार भी सूत्रोको पढते ही उनका शब्दार्थ समझ सकता है। किन्तु चूंकि उनमें प्रतिपादित विपय जैन सिद्धान्तके गूढ और गम्भीर तत्त्वोंसे सम्बद्ध है, अत पारिभापिक शब्दोके वाहुल्यके कारण उनका भाव समझ सकना सरल नही है । जो जैन कर्मसिद्धान्तकी मोटी-मोटी बातोमे परिचित है वे उनके सूत्रोके आगयको भी सरलतासे हृदयगम कर सकते है, पर सभी खण्डोके विपयमें ऐसा नही कहा जा सकता।