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प्रकाशकीय श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला द्वारा सन् १९६२ में जैन साहित्यका इतिहास (पूर्ववीठिका) प्रकाशित हुआ था। उसके अगले दो भागोंकी सामग्री भी ग्रन्थमालामें उसके यशस्वी लेखक श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखकर दे दी थी। और वे दोनो भाग भी कई वर्ष पूर्व छप जाना चाहिए थे। किन्तु कई कारणो और विघ्न-बाधाओसे वे नही छप पाये । हम नही चाहते कि उन कारणो और विघ्न-बाधाओका यहाँ अकन किया जाय । कठिनाई यह है कि जिसे मत्री चुना जाता है उसे ही 'पीर ववरची भिस्ती खर' वनना पडता है ।
सन् १९६४-६५ में हमे अध्यक्ष व अन्य सदस्योने आर्थिक सहायता प्राप्त करानेके आश्वासनके साथ ग्रन्थमालाके नये मत्रित्वका दायित्व सोपा था। उस समय ग्रन्थमालाकी स्थिति ऐसी थी कि उसे भारतीय ज्ञानपीठ या अन्य प्रकाशनसस्थाओको दे देनेका समितिने कई वार विचार ही नहीं किया, पत्राचार भी किया। किन्तु कोई प्रकाशन-सस्था उसे ले न सकी। फलत ग्रन्थमाला-समितिने १९-१०-१९६४ की कटनी वैठकमें हमें मत्री और हमे ग्रन्थमालाकी आर्थिक दशा सुधारनेके लिए स्वर्गीय सेठ भागचन्द्रजी डोगरगढ और उपाध्यक्ष श्रीमान् प० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीने प्रेरणा और आश्वासन दिया कि वे हमें अवश्य ग्रन्थमालाकी दशा सुधारनेमें सहयोग करेंगे। किन्तु हमें स्वय उसकी स्थितिको उन्नत करने में लगना पड़ा और संरक्षक-सदस्यकी योजना द्वारा न केवल ग्रन्थमालाकी स्थितिको उन्नत किया, अपितु कई ग्रथोको प्रकाशित भी किया गया। पूज्य वर्णीजीका समयसार-प्रवचनके दो सस्करण, वर्णी-वाणी १, २, ३ के दो-दो संस्करण, मेरी जीवनगाथाका द्वितीय सस्करण, जैनदर्शनका दूसरा-तीसरा सस्करण, द्रव्यसंग्रह-भाषावनिका, मन्दिरवेदीप्रतिष्ठा-कलशारोहणविधिका दूसरा संस्करण, सामायिकपाठ, अनेकान्त और स्याद्वादका दूसरा सस्करण, अध्यात्म-पत्रावली व सत्यकी ओर के दो-दो सस्करण, आदिपुराणमें प्रतिपादित भारत, तत्त्वार्थसार, सत्प्ररूपणासूत्र और कल्पवृक्ष इन ग्रंथोका पिछले वर्षों में प्रकाशन हुआ है और इससे ग्रन्थमाला सप्रमाण हो गयी।
किन्तु हमें दुख ही नही मार्मिक पीडा है कि पिछले दिनोमें हमें जो आर्थिक सकट रहा उसे बार-बार अध्यक्षजीके सामने रखा। किन्तु हम उनसे उस सकटनिवारणमें असमर्थ रहे। सौभाग्यकी वात है कि जनसाहित्यके इतिहासके अगले दो भागोको स्वर्गीय डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्री, श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी और