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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४८५ नही जो प० वामदेवजी कायस्थ ही हों। दिगम्बर सम्प्रदायमें महाकवि हरिचन्द्र, दयासुन्दर आदि और भी अनेक विद्वान् कायस्थ जातिके हो चुके है।'
इस प्रकार वामदेवने अपने लोक्य दीपक नामक ग्रन्थके अन्तमें भी अपना उक्त परिचय दिया है। उसमें उन्होंने अपनेको जैन प्रतिष्ठा विधिका आचार्य बतलाया है । यह ग्रन्थ उन्होने पुरवाडवशके कामदेवके पौत्र तथा जोमनके पुत्र नेमिदेवकी प्रेरणासे बनाया था। इस तरह अपने ग्रन्थोमें वामदेवने अपना सामान्य परिचय देकर भी उसके समयके विषयमें कोई निर्देश नहीं किया
परन्तु लोक्य दीपक ग्रन्थकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीमहावीरजी के शास्त्र भण्डारमें है। उसमें उसका लेखनकाल सं० १४३६ और लेखन स्थान योगिनीपुर दिया है। तथा लेखकने फिरोजशाह तुगलकके शासनकालका भी उल्लेख किया है । अत यह निश्चित है कि वामदेवका समय 'स० १४३६ के वाद का नही हो सकता।'
द्विसन्धानकान्यकी नेमिचन्द रचित टीकाकी प्रशस्तिमें नेमिचन्द्रने अपनेको विनयचन्दका प्रशिष्य और देवनन्दिका शिष्य बतलाया है। तथा त्रैलोक्यकीतिक चरण कमलोको भी नमस्कार किया है। वामदेवने भी अपने गुरु लक्ष्मीचन्द्रके गुरुका नाम त्रैलोक्यकीर्ति और त्रैलोक्यकोतिके गुरुका नाम विनयचन्द बतलाया है। अत नेमिचन्दके गुरुके गुरु विनयचन्द और वामदेवके दादा गुरु विनयचन्द एक ही व्यक्ति प्रतीत होते है। उन्हीके शिष्य त्रैलोक्यकीर्ति थे । किन्तु वे कव हुए इसका कोई पता नही चलता क्योकि द्विसन्धान टीकामें भी उनके समयका निर्देश नहीं है और न अन्यत्रसे ही उनके सम्बन्धमे कोई ऐसी जानकारी प्राप्त हो सकी जिससे उनके समय पर प्रकाश पड़ सकता हो।
१ ज०म० प्र०स०, भा० १, पृ० २०३-२०५ । २ 'आमेर शास्त्र भण्डारकी ग्रन्थ सूची'-पृ० २१८ ।