________________
४८४ जनसाहित्यका इतिहास
पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-पूज्य तो निर्दोप केवली जिन है । और पूजक' वेश्या आदि व्यसनोका त्यागी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शीलवान शूद्र होता है । अपने इस कथनकी पुष्टिमें ग्रथकारने जिनसहिताका प्रमाण भी उद्धृत किया है । यह कथन प्रा० भा० स० में नही है।
प्रा० भा० स० की तरह स० भा० स० में भी प्राभातिक विधिमें शौच आचमनका निर्देश है और नागतर्पण, क्षेत्रपालतर्पण गण अष्ट दिग्पालोकी स्थापनाका भी कथन है किन्तु प्रा० भा० स० में जो शस्त्रसहित यानसहित और प्रियासहित आह्वान करनेका विधान किया है । वह यहाँ नही है । इसी तरह प्रा० भा० स० में जिन चरणोमे चन्दनलेपनका जो कथन है वह भी स० भा० स० में नहीं है।
पूजनके कथनमें स० भा० सं० के कर्ताने आशाधरके सागरधर्मामृतका अनुकरण विशेपरूपसे किया है। प्रतिमाओके कथनमें भी यत्रतत्र उसकी छाया है। वैसे रत्न करडको मुख्य रूपसे अपनाया गया है ।
पूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय, सयम, तप और दान इन श्रावकके पट्कर्मोका भी कथन है वो प्रा० भा० स० में नही है ।
छठे और तेरहवे गुणस्थानके कथनमें भी प्रा० भा० स० से विशेषता है। इस तरह स० भा० स० प्रा० भा० स० का छापानुवाद होते हुए भी अपनी कुछ विशेषताओको लिये हुए है । रचना सरल और स्पष्ट है । श्लोक सख्या ७८२ है । रचयिता और समय __संस्कृत भावसग्रहके अन्तमें उसके रचयिता ने अपना नाम वामदेव और अपने गुरुका नाम लक्ष्मीचन्द्र बतलाया है । लक्ष्मीचन्द्र के गुरुका नाम त्रैलोक्यकीति था और त्रैलोक्यकीतिके गुरुका नाम विनयेन्दु या विनयचन्द्र था। वे मूलसपी थे । तथा ग्रन्थकार वामदेव का जन्म 'शशिविशदकुले नैगम श्री विशाले' में हुआ था। प्रेमीजीने लिखा है कि 'निगप कायस्थ जातिका एक भेद है । आश्चर्य
१ 'भव्यात्मा पूजक शान्त वेश्यादिव्यसनोभित । ब्राह्मण क्षत्रियो वैश्य स
शुद्रो वा सुशीलवान् ।।४६५।।—स० भा० म०।। 'श्रीमत्सर्वज्ञपूजाकरणपरिणतस्तत्त्वचिन्तारसालो, लक्ष्मीचन्द्राह्रिपद्य मधुकर श्रीवामदेव सुधी । उत्पतिर्यस्य जाता शशिविशदकुले नैगमश्रीविशाले सोऽय
जीयात् प्रकम जगतिहसलसद्भावशास्त्रप्रणेता ॥७८१॥-स०भा०सं० । ___३ भावसंग्रहादिके प्रारम्भमें ग्रंथ परिचय, पृ० ३ ।