________________
४४८ : जैनसाहित्यका प्रतिद्वारा
योगति नामकर्म होताशी बान में जोगी गति न भूमिवर नार
अभावमेण प्रदेशी
दाना (न), पवन ही जाना ।
नागरम ना तो
जाका हि यदि
निमील, मी
नगो ओपन दा
1
ये है आदि जीवनचन, प्रमाण, हळनिहाय यावर नागा
नस्यापर
मुनि
जा
भी की। को,
पर
टीकाका लोग एवं दिया है भन्नु
प्रानि
"
का नाम अगिनार आता है। गर्भग्नव श्री र
गाव गावाजी
र उपर
कर्मन एक गाव गया है। जो भाष गावाएं जरा को निर्देश नहीं है।
उपनाव मा गरे। गाया है उनमें अनेक गावाएं ऐसी है और
बहुतनी
भी गई है। मगर गए जीव
नमान नामक प्रकरणमा यान गमाप्त हो जाने वा नाग
जो भगवन
और
मा लगना है । यकी समाधिके साथ ही प्राक नमन कर दिया गया है । यह तो हुई मूल प्रकरण की बात ।
नाम पर केवल दो स्यानोपर टीका की गई है। एक तो प्रारम्भमें गुणस्थानके लक्षण वाली तीनरी गायक नीने 'उदापी लद्भिविह्वत्तम्नामी । लिगकर लब्धि विधान ? कथन है । इस लगि विधानमें प्रत्येक गुणस्थानमें कौन सा भाव क्यो होता है, उसका स्पष्ट और सुन्दर कथन है । दूगरी मार्गणाके मोक्षां वाली गाथाके नीचे चौदह मार्गणाभोंकी व्युत्पत्ति की गई है जो धवला भाग एक ली गई है । बस, इस प्रकरणमें टीकाके नामपर इनता ही है ।
आकुञ्चन प्रमारण- निमीलनोन्मीलन-स्पन्दनादि यसन ।
तद्वीन्द्रियादीना
न स्यात् । अत प्रसनिर्वर्तक सनाम । यदि स्थावर नामकर्म न स्यात् नावतिष्ठति जीव स्पन्दनाभावात् । अत स्थावर निर्वर्तक स्थावरनाम ।'