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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४७ किया गया है खास कर जहाँ व्युत्पत्ति आदि दी गई है। और इस तरह उसमें जानने योग्य विपयकी बहुतायत है। आभिनिबोधिक ज्ञानकी जो व्युत्पत्ति दी गई है वह अभी तक हमारे देखनेमें किसी ग्रन्थान्तरमें नह आई । यथा____ 'आभिनिवोधिक ज्ञानमिति'-अ इति द्रव्य पर्याय । भि इति द्रव्याभिमुख 'निरिति निश्चयबोध इति ।' बुध अवगमने धातु । अभिनिवोधिक एव आभिनिवोधिक वा प्रयोजन अस्येति आभिनिवोधिकम् । आभिनिवोधिकमेव ज्ञान आभिनिवोधिक ज्ञानम् । आभिनिवोधिक ज्ञानस्य आवरण आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय चेति । इसमें 'अ' का अर्थ द्रव्य और 'भि' का अर्थ द्रव्याभिमुख अश्रुत पूर्व है । समस्त दिगम्बर तथा श्वेताम्बर साहित्यमें 'अभिमुख नियमित वोध' अर्थ ही किया गया है। ज्ञानके भेदोका अच्छा कथन ज्ञानावरणीय कर्मके कथनमें किया गग है। नामकर्मकी कुछ प्रकृतियोका स्वरूप कथन प्राय तत्त्वार्थवार्तिकसे लिया गया है। किन्तु आनुपूर्वी नामकर्मका जो लक्षण किया है वह दिगम्वर परम्पराके शास्त्रोमे हमारे देखनेमें नही आया। दिगम्बरीय साहित्यके अनुसार आनुपूर्वी नामकर्मका कार्य पूर्व शरीर छोडनेके बाद और नया शरीर धारण करनेके पहले विग्रह गतिमें जीवका आकार पूर्व शरीरके समान बनाये रखना है । किन्तु टीकाकारने लिखा है कि यदि आनुपूर्वी नामकर्म न होता तो जीव एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें नही जा सकता था। अत क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरमें ले जाने वाला कर्म आनुपूर्वी है । यह लक्षण श्वेताम्बर परम्परासे मेल खाता है । उसके अनुसार आनुपूर्वी नामकर्म समणिसे गमन करते हुए जीवको खीचकर उसके विश्रेणि पतित उत्पत्तिस्थानमें ले जाता है। इसी तरह विहायोगति नामकर्मका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-यदि १ 'पदुदयात् पूर्वशरीराकाराविनाशस्तदानुपूयं नाम ।।-त०वा० पृ० ५७७ । २ "अनुपूर्वे भवा अनुपूर्वी अनुगति अनुक्रान्तिरित्यर्थ । यद्यानुपूर्वी नामकर्म न स्यात् क्षेत्रात् क्षेत्रान्तर प्राप्तिर्जीवस्य न स्यात् । अत क्षेत्रान्तर प्रापककर्मानुपूर्वी नाम ।' देखो प्रथम कर्मग्रन्थके हिन्दी अनुवादका परिशिष्ट पृ० १३४ । ४ 'विहायसि गति विहायोगति । यदि विहायोगति नामकर्म न स्यात् आकाशे जीवगतिर्न स्यात् । तदभावे अल्पप्रदेशाना भूम्यवस्थान बहूवा आकाश व्यवस्थापन पतनमेव स्यात् । यदि त्रसनाकर्म न स्यात् न त्रसत्ति जीव ,
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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