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४४० : जैनसाहित्यका इतिहास अथवा जिस रूपमें उसका कथन किया गया है वह सकलयिताकी बुद्धिमत्ताका
नहीं होता। सकलयिताका नाम तथा समय
प्रतिमें कर्मप्रकृतिके रचयिताका नाम नेमिचन्द सिद्धान्ति लिखा है। कर्मकाण्डके रचयिताका नाम नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती था। अत यह नेमिचन्द सिद्धान्ती कोई दूसरे ही व्यक्ति प्रतीत होते है। मुखतार साहबने लिखा है'मेरी रायमें यह कर्मप्रकृति या तो नेमिचन्द्र नामके किसी दूसरे आचार्य, भट्टारक अथवा विद्वान्की कृति है, जिनके साथ नामसाम्यादिके कारण 'सिद्धान्त चक्रवर्ती पद बादको कही कही जुड गया है, सब प्रतियोमें यह नही पाया जाता । या किसी दूसरे विद्वान्ने उसका सकलन कर उसे नेमिचन्द्र आचार्यके नामाकित कर दिया है। ऐसा करनेमें उसकी दो दृष्टि हो सकती है, एक तो ग्रथ प्रचारकी
और दूसरी नेमिचन्द्रके श्रेय तथा उपकार स्मरणको स्थिर रखनेकी क्योकि इस अथका अधिकाश शरीर आद्यन्त भागो सहित उन्हीके गोम्मटसारसे बना है । (पु० वा० सू० प्रस्ता०, पृ० ८८)।
यद्यपि सकलयिताके नामका निर्णय न हो सकनेसे उसके समयका निर्णय किया जा सकना शक्य नही है । तथापि हमारे सामने आरा जैन सिद्धान्त भवनकी जो प्रति उपस्थित है उस पर प्रति लेखनका काल सम्बत् १६६९ लिखा है । भट्टारक ज्ञान भूषण और सुमतिकीति ने उस पर एक टीका भी लिखी है। पचसग्रहकी वृत्ति भी सुमतिकीर्तिकी लिखी हुई है और उसमें उसका रचनाकाल सम्बत् १६२० दिया है। उसका सशोधन भी ज्ञानभूषणने ही किया था । अत यह वृत्ति भी उसी समयके लगभग की होनी चाहिये ।
अत इतना तो सुनिश्चित है कि विक्रमकी ११वी शताब्दीके पश्चात् १६वी इत्यादि पूर्वकी तीन गाथाओमें प्रदेश बन्धका ही कथन है । ज्ञानभूषणने अपनी टीकामें इसका अर्थ देते हुए लिखा है-'ते चत्वारो भेदा के ? प्रकृतिस्थित्यनुभागा प्रदेशबन्धश्च, अय भेद पुरा कथित ।' मुख्तार साहबने यह भी लिखा है कि मेरे पास कर्मप्रकृतिकी एक वृत्ति सहित प्रति और है जिसमें यहाँ पाँचके स्थान पर छै गाथाएँ है । छठी गाथा 'सो बधो चउभेओ' से पूर्व इस प्रकार है
'आउगभागो थोवो णामा गोदे समो तदो अहिओ ।
घादि तिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥' यह कर्मकाण्डकी गाथा १९२ है ।