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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४३९ द्वारा आतप नामकर्म और उष्ण नामकर्मके अन्तरको स्पष्ट किया है। नामकर्मके भेदोको बतलाते हुए कर्मप्रकृतिके संकलयिताने इन सब गाथाओको यथास्थान सकलित कर लिया है। इस तरह सब कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोकी सख्या समाप्त होने पर्यन्त कर्म प्रकृतिकी गाथा सख्या १०३ हो जाती है। आगे पुन कर्मकाण्डकी गाथा ३४ से ५१ तक यथाक्रम है। ५१ सख्याकी गाथाका नम्बर कर्म प्रकृतिमें १२२ है । यही प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार समाप्त हो जाता है । जबकि कर्मकाण्डके इस अधिकारमें ५१के बाद भी ३५ गाथाएँ शेप रह जाती है जो कर्म प्रकृतिमें नहो ली गई है। अस्तु,
इसके बाद कर्म प्रकृतिमें स्थितिवन्धका कथन है। यह कर्मकाण्डसे सकलित है । कर्मकाण्डके अन्तर्गत स्थिति वन्धाधिकारकी गा० १२७से १४४ तक ज्यो की त्यो यथाक्रम सकलित है। उनका नम्बर १२३ से १४० तक है । यही स्थितिवन्धाधिकार समाप्त हो जाता है। यद्यपि कर्मकाण्डमे आगे भी चलता है। अतभागवन्धाधिकारमें केवल चार गाथाएं है जो कर्मकाण्डके अनुभागबन्धा० की है। कर्मकाण्डमें उनका नम्बर १६३, १८०, १८१ और १८४ है । ___ आगे आठो कर्मों के प्रत्ययोका कथन भी कर्मकाण्डके प्रत्ययाधिकार नामक छठे अधिकारसे सकलित किया गया है। कर्मकाण्डमें ८०० से ८१० गाथा तक ग्यारह गाथाओसे यह कथन किया गया है। किन्तु कर्मप्रकृतिमें गा० १४५ से १६२ तक १८ गाथाओसे प्रत्ययोका कथन है। उसका कारण यह है कि कर्मप्रकृतिके सकलयिताने एक गाथाके द्वारा असाता वेदनीयके वन्धके कारणोका, ५ गाथाओके द्वारा तीर्थकर नामकर्मके वन्धके कारणोका और एक गायाके द्वारा अशुभ नामकर्मके वन्धके कारणोका विशेप कथन किया है जो कर्मकाण्डमें नही है। इससे गाथा सख्या बढ गई है। ___इस तरह कर्मप्रकृति एक सकलित रचना है । मुख्य रूपसे कर्मकाण्डसे उसका सकलन किया गया है और कमी पूर्ति के रूपमें सकलयिताने उसके कुछ अन्य गाथाएँ भी जो उसकी स्वरचित प्रतीत होती है, जोड दी है। किन्तु सकलयिताकी रुचि कुछ विचित्र सी जान पड़ती है। उसने अनुभागवन्धकी केवल चार गाथाएँ ही सकलित की और प्रदेशवन्ध' को तो एक तरहसे छोड ही दिया है। १ कर्मप्रकृतिकी गाथा २१-२६ में जीव प्रदेशों और कर्मप्रदेशोके वन्धादिका
कथन किया है । और गाथा २६ में वन्धके चार भेद बतलाकर उत्तरार्धमें लिखा है-'पयडिट्ठिदि अणुभागपएसवधो पु कहियो ।' मुख्तार साहवने अपनी पु० वा० सू० की प्रस्ता० (१० ८३) के फुटनोटमें लिखा कि 'पयडिट्ठिदि अणु भाग पएसवधो पुरा कहिओ' कर्मप्रकृतिकी अनेक प्रतियोमे यही पाठ पाया जाता है जो ठीक जान पडता है क्योकि 'जीपपएसेक्केक्के'
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