________________
४३० : जैनसाहित्यका इतिहास श्वेताम्वर परम्परामें विभिन्न आचार्योने छोटे २ प्रकरण रचकर उस कमीकी पूर्ति की।
आचार्य गर्गीषने १६८ गाथाओके द्वारा कर्मविपाक नामक ग्रन्थ रचा। जैसा कि ग्रन्थके नामसे प्रकट होता है इस ग्रन्थमें आठो कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोके विपाक (पककर फल देने) का कथन किया है । साधारणतया आठो कर्मोकी १४८ प्रकृतियाँ ही मान्य है किन्तु नामकर्मकी प्रकृतियोमे पांच शरीरोके अवान्तर भेदोको ले लेनेसे उनकी संख्या १५८ भी हो जाती है। तदनुसार गर्पिने अपने कर्मविपाकमें कर्मप्रकृतियोकी सख्या १५८ ही मान्य की है। आठो कर्मोके स्वभावको बतलानेके लिये आठ दृष्टान्त दिये गये है
पड-पडिहारसिमज्जा-हलिचित्त-कुलाल-भडगारीण ।
जह एदेसि भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा ॥ यह गाथा शतकमें है। फिर उसीसे प्राकृत दि० पञ्चसग्रह, कर्मकाण्ड, और गपिके कर्मविपाकमें भी ज्यो-की-त्यो ले ली गई है। केवल चतुर्थचरणमें थोडासा पाठ भेद है। कर्मविपाकमें गपिने प्रत्येक दृष्टान्तका पृथक्से स्पष्टीकरण भी किया है। दिगम्वर परम्पराके भावसग्रह और कर्मप्रकृतिमें भी वैसा किया गया है।
___ कर्मविपाकमें प्रत्येक कर्मप्रकृतिका कार्य पृथक् २ बतलाया है । इससे वह बहुत विस्तृत हो गया है, किन्तु उससे प्रत्येक प्रकृतिका कार्य स्पष्ट रूपसे समझमें
आ जाता है। प्रकृतियोके स्वरूपमे अन्तर
दोनो जैन परम्पराओमें आठों कर्मो सौर उनकी उत्तरप्रकृतियोंकी संख्या तथा उनके नामोमें अन्तर नही है। किन्तु कुछ उत्तरप्रकृतियोके कार्योमें और अर्थोमें अन्तर है । ऐसी प्रकृतियोमें दर्शनावरण कर्मके अन्तर्गत पाँच निद्राएं और नामकर्मके अन्तर्गत कुछ प्रकृतिया उल्लेखनीय है । उनमे भी नामकर्मके सहननके
१ 'भणिओ कम्मविवाओ समासो गग्गरिसिणा उ ॥१६७॥
एव गाहाण सय अहिय छावट्ठिए पढिऊण ।
जो गुरु पुच्छइ नाही कम्मविवाग च सो अइरा ॥१६८॥'-ग०क०वि० । यह कर्मविपाक ग्रन्थ दो सस्कृत टीकाओके साथ 'सटीकाञ्चत्वार प्राचीना कर्मग्रन्था के अन्तर्गत जैन आत्मानन्द सभा भावनगरसे प्रकाशित हुआ था।
२ आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल आगरासे प्रकाशित 'पहला कर्मग्रन्थ' __- पृ० १३३ आदिमें यह अन्तर दिया हुआ है ।