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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४२९
प्रभाचन्द्राचार्यने अपने प्रमेयकमलमार्तण्डमें नीचे लिखी गाथा उद्धृतकी है
णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । ओज मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो यो ||
यह गाथा भावसग्रहमें बिल्कुल इसी रूपमें वर्तमान है और उसकी क्रम सख्या ११० है | न्यायाचार्य प० महेन्द्र कुमारजीने उक्त ग्रथकी भूमिकामें प्रभाचन्दाचार्यका समय ९८० ई० से १०६५ तक निश्चित किया है । किन्तु भाव सग्रहकी उक्त स्थितिको देखते हुए यह नही कहा जा सकता कि उक्त गाथा भावसंग्रहसे ली गई है ।
भावसग्रह अवश्य ही कम से कम भारतमें गजनीके आक्रमणके पश्चात् रचा गया है । और उसे उसकी पूर्वावधि माना जा सकता है । तथा कर्मप्रकृति नामके संग्रह ग्रन्थ में कुछ गाथाएँ ऐसी है जो भावसग्रहमें भी है और उनकी क्रमसख्या भावसग्रहमें ३२५ से ३३८ तक ( न० ३३० को छोडकर ) है | चूँकि कर्म प्रकृतिमें उन गाथाओकी स्थिति उतनी सगत नही जान पडती जितनी भावसग्रहमें है । अत भावसग्रहसे यदि उन्हे कर्मप्रकृतिमें सगृहीत किया माना जाये तो भावसग्रहकी उत्तरावधि कर्मप्रकृतिके पूर्व हो सकती है । किन्तु कर्मप्रकृतिके संग्रहका समय भी सुनिश्चित नही है |
वामदेवकृत सस्कृत भावसंग्रह प्राकृत भावसग्रहका ही छायानुवाद जैसा है । वामदेव रचित त्रलोक्य प्रदीप ग्रन्थको स० १४३६ की लिखी हुई प्रति श्री महावीर जीके शास्त्र भण्डारमें है । अत वामदेवने अपना भावसग्रह यदि विक्रमकी चौदहवी शताब्दी के उत्तरार्ध में रचा हो तो यह निश्चित है कि प्राकृत भावसग्रह उससे पूर्वका रचा हुआ है । पूर्वोल्लिखित बातोकी घ्यानमें रखते हुए प्राकृत भावसग्रहको विक्रमकी १२वी १३वी शताब्दीका मानना ही उचित प्रतीत होता है । जैसा कि प० परमानन्दजीका भी मत है ।
गर्ग रचित कर्मविपाक
शतक और सित्तरीसे प्रमाणित होता है कि जैन परम्परामें इस प्रकारके प्रकरणोको रचनेकी प्रवृत्ति आरम्भसे ही रही है । उससे कर्मसिद्धान्तके एक एक विपयको समझने में सरलता होती है, अन्यथा यह सिद्धान्त इतना गहन और विस्तृत है कि साधारण बुद्धिका प्राणी उसका पार पाना तो दूर, उसमें प्रवेश करनेका भी साहस नही कर सकता । इस प्रकारके प्रकरण ग्रन्थ दोनो जैन परम्पराओं में रचे गये । दिगम्बरमें तो आचार्य नेमिचन्द्रने गोम्मटसारके द्वारा जीव और कर्मविपयक मौलिक सिद्धान्तोंको दो भागोमें निबद्ध कर दिया । किन्तु