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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४२५
पाण चक्क पउत्तो जीवस्सइ जो हु जीविओ पुव्व । जीवे वट्टमाण जीवत्त गुणसमावण्णो ॥ २८७॥
ये दोनो गाथाएँ पञ्चास्तिकायकी नीचे वाली दो गाथाओको सामने रखकर
रची गई है
जीवो त्ति हवदि चेदा स्वओगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसत्तो ॥ २७॥ पाणेहि चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हु जीविदो पुव्व । सो जीवो पाणा पुण बल मिंदियमाउ उस्सासो ॥३०॥
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प्रा० पञ्चसग्रह और पञ्चास्तिकाय तो देवसेनसे बहुत पहले रचे गये है अत उनमें तो किसी तरहका विवाद सभव नही है । किन्तु उनकी ही तरह जीवकाण्ड, द्रव्यसंग्रह और वसुनन्दिश्रावकाचारकी कतिपय गाथाओके साथ भी भावसग्रहकी कुछ गाथाओमे अशत अथवा सर्वत समानता पाई जाती है । और ये सब ग्रन्थ उसी समय लगभगके है जिस समयका भाव सग्रह माना जाता है । अत उनके साथ जो समानता है, काल निर्णयकी दृष्टिसे वही विचारणीय है । जीवकाण्डकी रचना वि स १०४० के लगभग हुई है, वसुनन्दि' का समय विक्रमकी वारहवी शताब्दी है । और पहले द्रव्यसन को भी जीवकाण्डके रचयिताकी ही कृति मान लिया गया था किन्तु अव वह मत मान्य नही है । फिर भी उसे ११वी १२वी शताब्दीके लगभगकी रचना माना जाता है |
१ जै० सा० इ० पृ० ३०२ और ९९ ।
भावसग्रहमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हुए सम्यग्दर्शनमें प्रसिद्ध हुए आठ व्यक्तियोके नाम गिनाये है । भा० स० की ये २७९ से २८४ तक छहो गाथाएँ ज्यो की त्यो उसी क्रमसै वसु० श्रा० मे वर्तमान है और वहाँ उनकी क्रम संख्या ५१ से ५६ तक है |
दोनोका मिलान करनेसे अन्य भी गाथाओ में शाब्दिक तथा विपयगत समानता पाई जाती है ।
इसी तरह द्रव्य संग्रहके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । उसके साथ साम्य दर्शनके लिये नीचे भावसग्रहसे कुछ गाथाएँ दी जाती है ।
जीवाण पुग्गलाण गइप्पवत्ताण कारण धम्मो जहमच्छाण तोयं थिरभूया णेव सो णेई || ३०६ ॥ ठिदिकारण अधम्मो विसामठाण च होइ जह छाया । पहियाण रुक्खस्स य गच्छत णेव सो धरई ॥३०७॥
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तथा पु० वा० सू० की प्रस्ता० पृ० ९२