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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ' ४२३ गट्टागपगाओ वयगुणगीलेहि मडिओ गाणी । अणुवगमओ अगवओमाणणिलीणो हु अप्पमत्ती गो ॥१४॥
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हुति अणियट्टिणो ते पडियममय जग्ग एक्कपरिणाम । विमलयर माणहुयवहगिहाहि णिहटकम्गवणा ॥५१॥
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जह सुद्धफलियगायणि गित णीर गुणिम्गल सुद्ध ।
तह णिमालपरिणामो पीण कमाओ मुणेयनी ॥२॥ उपत गाथाएं प्राकृत पञ्चगग्रहमे है और उगीगे ली गई जान पड़ती है। अन्तिम गायाको छोटकर शेप गाथाएँ गोम्पटगार जीवकाण्टम तथा कुछ धवलाम भी है जो प्रा० पजगग्रही ली गई है। ऐनी स्थितिम यह गका हो सकती है फि उन गाथाओको भावनग्रहकारने पञ्चगग्रहमे ही लिया और धवला या जीवकाण्डने न लिया इसमें क्या प्रमाण है ? उसके सम्बन्धम पहला प्रमाण तो यह है कि न० ६६२ वाली गाथा पञ्चगग्रह की है । यह न तो धवलामे है और न जीवकाण्डमें । उगमे यह स्पष्ट है कि भावगग्रहकारके सामने पञ्चगग्रह अवश्य या। दूगरे जीवकाण्ड और पञ्चगग्रहम पाठभेद भी है। भावमग्रहगत पाठ पञ्चसग्रहके अनुस्प है जीवकाण्डके नही । यथा---गा० ११में “ए चउदमा गुण ठाणा' पाठ पञ्चसग्रहरी अधिक मिलता है। प०स०में 'चोद्दम गुण ठाणाणि य' पाठ है और जीवकाण्डमे इमके स्थानमें 'चोद्दस जीवसमासा' है। यह गाय धवलामें नहीं है।
किन्तु इससे यह प्रमाणित नही किया जा सकता कि भावसग्रहकारके सामने जीवकाण्ड नही था। प्रत्युत कुछ गाथाएं तथा पाठ ऐसे है जिनमे यह प्रमाणित होता है कि दोनोके कर्ताओममे किसी एकने दूसरेको अवश्य देखा था। इसके लिये प्रथम तो उक्त उद्धृत गाथामओमें न० ३५१की गाथा है। प०स०में इस गाथाका रूप इस प्रकार है
जो तसवहाउ विरदो गोविरमओ अक्खथावरवहाओ ।
पडिसमय सो जीवो विरयाविरओ जिणेक्कमई ॥१३॥ और 'धवला तथा जीवकाण्डमें उसका रूप इस प्रकार है
जो तसवहादु विरदो अविरदओ तह य थावरवहाओ ।
एक्कसमयम्मि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई ॥३१॥ किन्तु भावसग्रहमें उक्त गाथाका रूप पञ्चसग्रह और जीवकाण्डका मिश्रित १ 'धवलामें' 'द' के स्थाने 'अ' है केवल इतना ही अन्तर है।
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