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४२० : जनसाहित्यका इतिहास
४३९-४४०)। अन्य श्रावकाचारोमें इस तरहका विधान हमारी दृष्टिसे नही गुजरा। इसमें सिद्ध चक्रयत्रका भी उद्धार है (गा० ४५४)। तथा भगवानके चरणोमें चन्दनका लेप करनेका भी विधान है (गा० ४७१) । आगे चार दानोका, और उसके फलका कथन है । ___ सातवें गुणस्थानके स्वरूप कथनमें पिण्डस्थ, पदरथ, स्पस्य और स्पातीतध्यानका सक्षिप्त कथन है । आगे शेप गुणरथानोका सामान्य कथन करके ग्रन्यको समाप्त कर दिया गया है। कर्ता और समय
यह पहले लिप आये है कि इम ग्रन्यके कर्ता विमल गणधरके शिष्य देवसेन है । देवसेन नामके कई आचार्य हो गये है । उनमें एक देवसेन वह है जिन्होने वि० स० ९९० मे दर्शनसार नामक ग्रन्यकी रचना की थी। आलाप पद्धति, लघुनयचा, आराधनासार और तत्त्वमार नामक ग्रन्थ भी देवसेनके द्वारा रचित है । ये सव अन्य माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला बम्बईसे प्रकागित हो चुके है । इन सबको दर्शनसारके रचयिता देवमेनकी ही कृति माना है। दर्शनसारके अन्तमें अपना परिचय देवसेनने इस प्रकार दिया है
'पुन्वाइरियकयाइ गाहाइं सचिऊण एयत्य । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संबसतेण ॥४९॥ रइओ दसणमारो हारो भन्वाण णवसए नवई ।
सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥५०॥' अर्थात् पूर्वाचार्योकी रची हुई गाथाओको एकत्र करके श्रीदेवसेन गणिने धारामें रहते हुए श्रीपार्श्वनाथके जिनालयमें माघ सुदी दसमी वि० स० ९९० को यह दर्शनसार रचा। तत्त्वसारके अन्त में लिखा है
सोऊणे तच्चसार रइय मुणिणाहदेवसेणेण ।
जो सद्दिट्ठी भावइ सो पावइ सासय सोखं ॥७४॥ 'मुनिनाथ देवसेनने सुनकर तत्वसार रचा। जो सम्यग्दृष्टि उसकी भावना करता है वह शाश्वत सुख को पाता है ।' आराधनासारके अन्तमें लिखा है
ण य मे अत्थि कवित्त ण मुणामो छदलक्खण कि पि । णियभावणाणिमित्तं रइय आराहणासार ॥११४॥ अमुणिय तच्चेण इम भणिय जं कि पि देवसेणेण । सोहंतु तं मुणिंदा अत्थि हु जइ पवयणविरुद्ध ॥११५॥