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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४१९
अकर्ता है और पुण्य पापका भोक्ता भी नही है । ऐसा लोकमें प्रकट करके वहन और पुत्रीको भी अगीकार किया गया है । ( गा० १७९ ) ।
एक पद्य इस प्रकार है
'धूय मायरिवहिणी अण्णावि पुत्तत्थिणि आयति य वासवयणुपयडे वि विप्पे । जह रमियकामाउरेण वेयगव्वे उपण्ण दप्पे भणि-छिपणि-डोवि-नडिय - वरुड - रज्जइ - चम्मारि । कवले समइ समागमइ तह भुत्ति य परणारि ॥१८५॥'
इसमें कहा है कि व्यास का वचन है कि पुत्री माता बहन तथा अन्य भी कोई स्त्री पुत्रोत्पत्तिको भावनासे आये तो कामातुर वेदज्ञानी ब्राह्मणको उसको भोगना चाहिये । तथा कपिलदर्शनमें आई हुई ब्राह्मणी, डोम्नी, नटी, धोबिन, चमारिन आदि परनारियोको भोगना लिखा है । स्मृतियोंमें इस प्रकारका कथन है कि जो पुरुष स्वय आगता नारीको नही भोगना उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है । उसी को लक्ष्यमें रखकर तथा पौराणिक उपाख्यानोके आधार पर उक्त कथन किया गया है । किन्तु इस तरहकी बातोका कपिलदर्शनसे कहाँ तक चिन्त्य है |
सम्बन्ध है यह
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यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यद्यपि भावसंग्रहकी रचना प्राकृत गाथावद्ध है तथापि यत्र तत्र कुछ उक्त प्रकारके छन्द भी पाये जाते है उन्हे 'वस्तुच्छन्द' लिखा है ।
आगे तीसरे मिश्र गुणस्थानका कथन करते हुए ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रकी आलोचना की गई है । ब्रह्माकी आलोचना करते हुए तिलोत्तमा आदिके उपाख्यानोकी चर्चा है और कृष्णकी आलोचनामें शूकर कूर्म तथा रामावतारकी समीक्षाकी गई है । रुद्रकी आलोचनामें उनके स्वरूप और ब्रह्म हत्या आदि कार्यो - की आलोचना है | ( गा० २०३ - २५५)
चौथे अविरत सम्यग्दृष्टी गुणस्थानका स्वरूप वतलाते हुए सात तत्त्वोका कथन किया गया है । पाँचवे गुणस्थानका स्वरूप २५० गाथाओके द्वारा बहुत विस्तारसे बतलाया है । चूकि पाँचवा गुणस्थान श्रावकाचारसे सम्बद्ध है ' अत उसमें श्रावकाचारका वर्णन है । उसमें अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतोके नामोके साथ अष्टमूल गुण भी वतलाये है और वे अष्टमूल गुण है— पाँच उदम्बर, फलो और मद्य मास मधुका त्याग । फिर चार प्रकारके घ्यानका कथन है । आगे देव पूजाका कथन है अन्य श्रावकाचारोमें इस प्रकारका कथन नही मिलता । इसमें अभिषेकके समय वरुण, पवन, यक्ष आदि देवताओको अपने २ प्रियवाहन तथा शस्त्रोके साथ आवाहन करनेका और उन्हे यज्ञका भाग देनेका विधान है । ( गा०