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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४११
धिकारके प्रारम्भ में यह कथन बहुत विस्तारसे किया गया है । यहाँ तो उसको वहुत सक्षिप्त कर दिया है ।
इन प्रत्ययोके पश्चात् कर्मकाण्डके इस अधिकारमें प्रत्येक कर्मके विशेष कारण ११ गाथाओ द्वारा वतलाये है । ये गाथाएँ वही है जो शतक प्रकरणमे वर्तमान है ओर दि० प्रा० पञ्चसग्रहके शतक प्रकरणसे ली गई जान पडती हैं । ७. भावचूलिका
इस अधिकारमें औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक, और पारिणामिक इन पाँच भावोका तथा इनके भेदोका कथन करके उनके स्वसयोगी भगोका कथन गुणस्थानो मे किया गया है ।
उसके पश्चात् जैन परम्पराकी वह प्राचीन गाथा दी गई है जिसमें कहा है कि क्रियावादियो के १८०, अक्रियावादियोके ८४, अज्ञानवादियोके ६७ और वैनयिको ३२ इस तरह ३६३ मिथ्यामत है ।
उस गाथाको देकर आगे उन मतोकी उपपत्ति दी है कि किस तरह क्रियावादी आदि मत १८० आदि होते है । वे सूत्रकृताग के प्रथम श्रुत स्कन्ध अध्ययन १२ में भी मतोकी चर्चा मिलती है । और उसकी टीकामें शीलाकने उनकी उपपत्ति भी दी है किन्तु कर्मकाण्डको उपपत्तिसे उसमें अन्तर है । तथा अमितगतिके संस्कृत पञ्चसग्रहमें ( पृ० ४१ आदि) भी उपपत्ति मिलती है जो कर्मकाण्डके ही अनुरूप है । अस्तु,
अन्तमें एक गाथाके द्वारा जो सन्मतितर्क (का० ३, गा० ४७) में भी वर्त - मान है, कहा गया है कि 'जितने वचनके मार्ग है उतने ही नयवाद है और जितने नयवाद है उतने ही परसमय है । अर्थात् सव नयोके समूहका नाम ही
जैनदर्शन है ।
८ त्रिकरणचूलिका
इस अधिकारमें अध करण और अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणोका स्वरूप कहा गया है । जीवकाण्डके प्रारम्भमें भी गुणस्थानोके प्रकरण में इन करणोका स्वरूप कहा गया है और तीनो करणका स्वरूप बतलाने वाली
१ देखो - कर्मकाण्ड गा० ८००-८१० और शतक गा० १६-२६ । २ असिदिसद किरियाण अक्किरियाणा च आहु चुलसीदी | सत्तट्ठण्णाणीण वेणयियाण तु वत्ती ॥८७६ ॥
३ 'जावइया वयणवहा तावदिया चेव होति णयवादा | जावदिया गयवादा तावदिया चेव होति परसमया ॥ ८९४ || गो० क० का० ।